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साहित्य और साहित्यकार
बदली हुई स्थिति
भारतवर्ष के लिए यह अत्यन्त गौरव की बात रही है कि अतीत में विभिन्न देशों के लोग यहां ज्ञान एवं चरित्र की शिक्षा लेने आया करते थे। यह स्थिति क्यों थी ? इसीलिए कि यहां त्यागी-तपस्वी ऋषि-महर्षियों की वाणी से प्रसूत साहित्य का अजस्र स्रोत सदैव प्रवाहित होता था। पर अत्यंत आश्चर्य एवं खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज यह स्थिति बिल्कुल पलट चुकी है। संस्कृत और प्राकृत भाषा में लिखा गया वह अखूट साहित्य, जिसे लाखों-करोड़ों की कीमत चुकाने पर भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, आज रद्दी के भाव बेचा जा रहा है । विदेशी लोगों के शिक्षा ग्रहण के लिए आने के स्थान पर आज भारतवासी विदेशों में शिक्षा ग्रहण करने जा रहे हैं। इस बदली हुई स्थिति ने राष्ट्र को, राष्ट्र की अस्मिता और गौरव को बहुत ठेस पहुंचाई है। साहित्यकारों से अपेक्षा
इस स्थिति में प्रबुद्धजनों एवं मनीषी साहित्यकारों से यह अपेक्षा है कि वे उस साहित्य का सूक्ष्मता से यथार्थ के धरातल पर मूल्यांकन करें और नव्य स्फूर्ति व चेतावनी की एक ऐसी धारा प्रवाहित करें, जो भारतीय मानस को स्वस्थता प्रदान कर सके । वह अपने प्राचीन गौरव को पुनः प्राप्त करने के लिए कृतसंकल्प बन सके ।।
साहित्यकारों का काम है कि वे नष्ट होते मानवीय मूल्यों की सुरक्षा के लिए तीव्र प्रयत्न करें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अणुव्रत आंदोलन उनके सामने है। मैं चाहता हूं, वे अणुव्रत-साहित्य का अध्ययन करें, अपने तटस्थ दिमाग से उस पर चिंतन-मनन करें और अपने लेखन को एक नया मोड़ दें, कि जिससे मानवता की ढहती मीनार को थामा जा सके। अपेक्षित है भूल का परिष्कार
हम देखते हैं कि सूर, मीरा, तुलसी आदि के भजन भारतवर्ष के घर-घर में आज भी बड़ी श्रद्धा और भावना के साथ गाए जाते हैं । ऐसा
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महके अब मानव-मन
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