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धर्म की सही समझ जागे
धर्म और सम्प्रदाय
धर्म एक बहता प्रवाह है । विभिन्न सम्प्रदाय उसके विभिन्न बांध हैं । जिस प्रकार बांध का पानी पीने और सिंचाई के लिए अत्यंत उपयोगी होता है, उसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदाय भी अत्यन्त उपयोगी हैं, बशर्ते वे धर्म के शाश्वत तत्वों का व्यापक प्रचार-प्रसार करें। इससे मानव समाज के लिए सुख और शांति का मार्ग प्रशस्त होता है । लेकिन अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि धर्म के मौलिक एवं शाश्वत तत्वों के प्रचार-प्रसार के विपरीत यदि सम्प्रदायों में कट्टरता, साम्प्रदायिकता और संकीर्णता की सड़ान आती है तो उससे मानव समाज का कोई हित संपादित नहीं हो सकता । वे जन-जन को सत्पथ पर बढ़ने की प्रेरणा नहीं दे सकते । उनका काम मात्र अपनी स्वार्थसिद्धि बन जाता है । और ऐसी स्थिति में वे पारस्परिक वैमनस्य और संघर्ष को जनम देते हैं । आजकल अधिकांश सम्प्रदाय इसी प्रकार की स्थिति से होकर गुजर रहे हैं। मैं मानता हूं, आज के चिन्तनशील व्यक्ति के धर्म से विमुख होने का यह एक प्रमुख कारण है ।
धन बनाम धर्म
धर्म के क्षेत्र में एक बात और बहुत बुरी हुई है । लोग पहले तो शोषण, अन्याय, धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और अनैतिक तरीकों से अर्थ का संग्रह करते हैं । फिर मंदिरों में दान कर, भिखमंगों को आटा-दाल और फटे-पुराने कपड़े देकर वे उस धन से धर्म और पुण्य खरीदते हैं, अपने पापों को धोने का प्रयत्न करते हैं । मैं नहीं समझता, यह कैसा धर्म ? अनीति और अधर्म से अर्जित धन से धर्म जैसी पवित्र चीज कैसे खरीदी जा सकती है ? पुण्य कैसे पाया जा सकता है ? और बहुत सही तो यह है कि धन से धर्म का कोई सम्बन्ध ही नहीं है । दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं है । वह किसी भी स्थिति में धन से नहीं खरीदा जा सकता। किसी भी कीमत पर नहीं खरीदा जा सकता । वह तो आत्मा का तत्व है, जिसे अहिंसा, संयम और तप के द्वारा ही साधा जा सकता है, पाया जा सकता है । मैं समझता हूं, धर्म के प्रति जब तक यह
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महके अब मानव-मन
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