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मैं सौभाग्यशाली
एक प्राचीन उक्ति है...-'दुर्लभं भारते जन्म' भारत में जन्म पाना दुर्लभ है। प्रश्न है, ऐसा क्यों कहा गया ? इसके पीछे एक विशेष आशय है, एक विशेष भावना है। भारत वह देश है, जिसकी संस्कृति अध्यात्म-आधारित है। संयम, तप और त्याग की उर्वरा में फली-फूली है । नि.संदेह अध्यात्म, संयम, तप, त्याग की संस्कृति के धनी देश में जन्म पाना किसी भी व्यक्ति के लिए गौरव की बात है, सौभाग्य की बात है। मैं भी अपने-आपको इस माने में गौरवशाली एवं सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे भारतवर्ष में जन्म मिला।
. मेरा दूसरा सौभाग्य यह है कि मैं ग्यारह वर्ष की बालवय में प्रातः-स्मरणीय पूज्य गुरुदेवश्री कालगणी के श्रीचरणों में दीक्षित हुआ। दीक्षित होने के पश्चात् मैं उनकी पावन सन्निधि में ग्यारह वर्षों तक रहा। इस अवधि में उन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया, बहुत कुछ सिखाया। इतना कि मैं उसे शब्दों में बताने में असमर्थ हूं। आज मैं जो कुछ भी हूं, वह सब उन्हीं की कृपा का प्रतिफल है। मैं जन्म-जन्मान्तर में भी उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता।
बावीस वर्ष की अवस्था में मैंने पूज्य कालगणी के उत्तराधिकारी के रूप में इस संघ का दायित्व संभाला । मुझे स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि मुझे इतनी छोटी अवस्था में इतना गुरुतर दायित्व संभालना पड़ेगा। पर दायित्व जब आ ही गया तो उसे निभाना आवश्यक था। मुझे इस बात का अत्यंत आत्मतोष है कि तब से अब तक सतत मैं इस दायित्व को जागरूकता के साथ निभाने का प्रयत्न करता रहा हूं। हालांकि इसमें मैं कितना सफल रहा हूं और कितना नहीं, इसका निर्णय मैं नहीं कर सकता ।
संघ का आचार्य बनने के पश्चात मैंने संघ के साधु-साध्वियों के सर्वांगीण विकास की ओर ध्यान दिया। विशेषतः शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए सघन प्रत्यन किया। उसके अनुकूल परिणाम आए हैं, आ रहे * ४५ वें जन्म-दिन के अवसर पर प्रदत्त प्रवचन
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महके अब मानव-मन
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