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अन्तर्मुखता का जीवन है, आत्म-केन्द्रित जीवन है, इसलिए भौतिक सुविधाएंअसुविधाएं साधक को प्रभावित नहीं कर पातीं। और ऐसी स्थिति में वह असुविधाओं को भोगता हुआ भी दुःख को नहीं भोगता, दुःख की संवेदना नहीं करता। मुझे आशा है, दीक्षित श्रमण-श्रमणियां सदैव अन्तर्मुखी बने रहेंगे, जिससे कि वे अपनी जीवन यात्रा के बीच दैहिक सुविधा-असुविधा की कोई भी स्थिति से अप्रभावित रह सकें। उनके समक्ष दुःख की संवेदना का कोई भी प्रसंग उपस्थित न हो । वे पूर्ण समाधि का जीवन जी सकें।
कानपुर २७ अक्टूबर १९५८
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महके अब मानव-मन
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