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दीक्षा-संस्कार
दीक्षा क्या है ?
___ अभी आपके समक्ष दो भाइयों और चार बहिनों का दीक्षा-संस्कार संपन्न हुआ। प्रश्न है, दीक्षा क्या है ? दीक्षा का अर्थ है -संयमी जीवन में प्रवेश करना। इसी बात को थोड़े विस्तार में इस प्रकार कहा जा सकता है कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना में यावज्जीवन के लिए प्राणपण से जुट जाना दीक्षा है। प्रकारान्तर से ऐसा भी कह सकते हैं कि सांसारिक सुख-सुविधापूर्ण जीवन के अन्त का नाम दीक्षा है। आपको यह बात अतिरंजनपूर्ण लग सकती है। आप कह सकते हैं, कोई भी व्यक्ति सुख-सुविधापूर्ण जीवन का अन्त करे, यह असंभव है । करने की बात भी आगे की है, ऐसा सोचना भी असंभव है। पर मेरे अनुभव से यह सही नहीं है । अध्यात्मवाद की साधना व जीवन के चरम उत्कर्ष में जिनकी गहरी निष्ठा और तीव्र आकर्षण है, वे भौतिक सुख-सुविधाओं की कब आकांक्षा करते हैं। कब परवाह करते हैं। वे साधना के बीच आनेवाली दैहिक असुविधाओं में दुःख की अनुभूति नहीं करते । सुख-दु:ख मन से संबंधित है
आप कहेंगे, यह कैसे संभव है कि दैहिक असुविधाओं से होकर व्यक्ति को गुजरना पड़े और उसे दुःख की अनुभूति न हो। इस संदर्भ में समझने की बात यह है कि दैहिक असुविधाएं और दुःख की अनुभूति ये दोनों बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। इनका परस्पर कोई सीधा संबंध नहीं है। दुःख की अनुभूति मानसिक स्तर की बात है, जबकि वह दैहिक स्तर की बात है। दीक्षित होने वाले व्यक्ति का मन यदि स्वस्थ है, सुसमाधिस्थ है, दृष्टिकोण अन्तर्मुखी है तो दैहिक स्तर पर होने वाली असुविधाएं उसको प्रभावित नहीं कर पातीं। वह दुःख की कोई संवेदना नहीं करता। हां, जहां व्यक्ति का मन अस्वस्थ और असमाधिस्थ है, दृष्टिकोण बहिर्मुखी और पदार्थवादी है, वहां वह असुविधाओं में दुःख का वेदन करता है। चूंकि दीक्षा का जीवन
दीक्षा-संस्कार
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