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संहिता बने, जो सबको मान्य हो सके। अन्यथा चाहते हुए भी लोग इस दलदल से बाहर नहीं निकल पायेंगे ।
दूसरी बात राजनीति की है। जो राजनीतिक लोग धर्म की बातों को साम्प्रदायिक बताते हैं, वे स्वयं आज इतने संकुचित दायरे में आ गये हैं कि उसके लिए कुछ भी कहने की बात नहीं है । आप देखें, धर्मशास्त्र व नीतिशास्त्र में आत्म-प्रशंसा और परनिन्दा को दोष माना गया है, जबकि आज राजनीति में आत्म-प्रशंसा और पर-निंदा करना एक आवश्यक कर्तव्य-सा ही समझा जाने लगा है। अत: उन राजनीतिक लोगों के लिए भी एक सर्वमान्य आचारसंहिता निर्मित होनी अपेक्षित है। इसके लिए एक सामान्य संगठन अस्तित्व में आए, यह आवश्यक प्रतीत होता है। उस संगठन में सभी दलों का प्रतिनिधित्व रहे। उसके माध्यम से किसी एक दल का प्रतिनिधि अन्य दलों को उस आचार-संहिता के मानने का अनुरोध करे। इस प्रक्रिया से किसी को बुरा भी नहीं लगेगा और काम भी सुगम हो जाएगा।
अणुव्रत आंदोलन इन सब पहलुओं को छूता ही है, अपितु इन सभी दिशाओं में कार्य करने के लिए भी प्रयत्नशील है। यद्यपि आन्दोलन का पिछला वर्ष बहुत सफल और यशस्वी रहा, तथापि एक बात की ओर ध्यान देना बहुत आवश्यक है। जिस स्तर पर अनैतिक और विध्वंसात्मक कार्य चल रहे हैं, उस स्तर पर नैतिक कार्य नहीं चल रहे हैं। पर यह निष्कारण नहीं है। चूंकि अनैतिक कार्यक्रमों में लोभ, लाभ व सत्ता का आकर्षण है, इसलिए बहुत सहजतया लोग इनके साथ जुड़ते रहते हैं। इसके लिए विशेष प्रयत्न करने की अपेक्षा नहीं रहती। पर नैतिक कार्यक्रमों में लाभ, सत्ता या स्वार्थसिद्धि की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। तब भला उनके साथ लोग जुड़ने के प्रति उत्साहित कैसे होंगे। ऐसी स्थिति में हमारा काम है कि हम जन-जन तक यह स्वर पहुंचा दें कि अनैतिकता में पतन है और नैतिकता में जीवन का समुत्थान निहित है। मैं मानता हूं, यह आस्था जितनी पुष्ट बनेगी, हमारा काम उतना ही सहज बनेगा। जिन व्यक्तियों और संस्थानों का नैतिकता में विश्वास है, वे सहज रूप से हमारे कार्य में सहयोग के लिए आगे आएंगे। बूंद-बूंद से घट भरता है, इस अपेक्षा से उन सबके सहयोग से हम स्वस्थ समाज के निर्माण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकेंगे।
कानपुर १९ अक्टूबर १९५८
अणुव्रत की कार्यदिशा
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