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का परस्पर अटूट सम्बन्ध है । लोग संयम को निषेधात्मक मानते हैं, पर वास्तव में वह जीवन का सर्वोपरि क्रियात्मक पक्ष है । यद्यपि असंयम स्वीकारात्मक पक्ष है, पर वह जीवन का विध्वंस करनेवाला है । इसके विपरीत संयम अस्वीकारात्मक होते हुए भी निर्माणात्मक पक्ष है ।
देश की अन्तरात्मा का निर्माण राष्ट्रीय चरित्र और संयम से होता | आज मनुष्य संग्रह के पीछे दौड़ता है । यद्यपि संग्रह को एकांतत: बुरा या हेय नहीं कहा जा सकता । सद्गुणों का संग्रह करने में कहां हर्ज है । सद्ज्ञान और सद्विचार हेय कैसे हो सकते हैं, बल्कि कहना चाहिए कि ये उपादेय हैं । व्यक्ति को सलक्ष्य इनका संग्रहण करना ही चाहिए। पर आज तो पदार्थ संग्रहणीय बन गया है । सत्ता संग्रहणीय बन गई है । यद्यपि इनका संग्रह भी कौशल व चातुर्य की अपेक्षा रखता है । यही कारण है कि इनकी प्राप्ति सबको समान रूप से नहीं होती । मैं मानता हूं, जिनमें सत्ता और पदार्थ के संग्रह का कौशल है, यदि वे इनसे विमुख हो जाते हैं तो उनकी विशेषता है, प्रधानता है । लालसाओं की धधकती आग से वे स्वयं तो बचेंगे ही, विश्व को भी बचा सकेंगे । समाज की प्रकृति अनुकरणप्रधान होती है। जैसा बड़े लोग करते हैं, उसीका अनुकरण सामान्य लोग करने लगते हैं ।
हमें स्वयं भगवान बनना होगा
आज समूचे संसार में अनैतिकता की महामारी, नीति-भ्रष्टता की प्लेग फैली हुई है । इनको नियंत्रित करने की, समाप्त करने की जिम्मेवारी किसकी है ? 'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत कहकर इससे हम अपनी जिम्मेदारी से छुटकारा नहीं पा सकते । हमारा उद्धार करने के लिए कोई भगवान या परमात्मा यहां नहीं आयेगा, अपितु हमें स्वयं ही परमात्मरूप धारण करना है । मैं समझता हूं, अपनी जिम्मेदारी से बेखबर होना आज का सबसे बड़ा खतरा है । यह वृत्ति बहुत ही घातक है । इसके परिणाम भयंकर होते हैं ।
समाधान की दिशा
एक व्यक्ति के नीतिभ्रष्ट होने पर समूचे संसार में विध्वंसात्मक प्रवृत्ति आ जाती है । यह एक खतरा है । इस खतरे का प्रतिकार हो, यह अत्यंत अपेक्षित प्रतीत होता है । आज के इस पतनोन्मुख वातावरण में सर्वकर्ममुक्ति की बात बहुत दूर की है, तथापि सब चाहते हैं कि यह आतंक किसी तरह से मिट जाए। इसको प्रश्रय देने की जिम्मेदारी दो पर है - समाज पर और राजनीति पर । समाज आज शृंखला - विहीन और नीतिभ्रष्ट हो रहा है । अत: समाज के लोगों के लिए एक ऐसी आचार
महके अब मानव-मन
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