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-मेरा महावीर से कोई पक्षपात नहीं है, कपिल आदि के प्रति कोई द्वेष नहीं है। युक्तियुक्त वचन में मेरा आग्रह है और वही मेरे लिए गाह्य भी
आज के संस्कृत के विद्वानों इससे को एक प्रेरणा लेने की जरूरत है। उनमें समन्वय की भावना का विकास होना चाहिए, जिसकी कि उनमें बहुत कमी देखी जाती है। इससे संस्कृत के विकस में बड़ी बाधा आई है, आ रही है। यदि समन्वय की भावना के साथ संस्कृतभाषानुरागी जन इस ओर गतिशील हुए तो मैं मानता हूं, भारत के सूखते अध्यात्म के स्रोत को पुन: एक नया वेग मिलेगा। संस्कृत-प्राकृत
संस्कृत भाषा के महत्व एवं उसके विकास के संदर्भ में मैंने कुछ बातें कही। परन्तु संस्कृत से आप मात्र संस्कृत का ही अर्थ ग्रहण न करें। प्राकृत, पाली आदि भाषाएं भी इसके साथ जुड़ी हुई हैं। भगवान महावीर ने प्राकृत भाषा में ही उपदेश किया था। आगम रूप में गुम्फित उनकी वाणी प्राकृत भाषा में ही है। इस बात को दोहराता हुआ कि संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं के साहित्य में अध्यात्मनिधि या भारतीय संस्कृति भरी पड़ी है, आप सबको इनके व्यापक अध्ययन-अध्यापन के लिए प्रेरित करता हूं।
कानपुर २८ सितम्बर १९५८
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महके अब मानव-मन
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