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अपेक्षित है संस्कृत का विकास
भारतीय संस्कृति का मूल
संस्कृत भारत की प्राचीन भाषा है । पर प्राचीन होने के बावजूद इसका महत्व किसी भी अर्वाचीन भाषा से कम नहीं है, बल्कि एक अपेक्षा से बहुत अधिक है । इसके साहित्य में अध्यात्म की वह गौरवास्पद अमर निधि भरी पड़ी है, जो भारतीय संस्कृति का मूल है, प्राणतत्व है । जीवन को पवित्रता एवं अभ्युत्थान की शाश्वत प्रेरणा देने वाली है । भारत में वैदिक, जैन एवं बौद्ध ये तीन दार्शनिक धाराएं रही हैं । इन तीनों दार्शनिक धाराओं का प्रतिनिधित्व संस्कृत भाषा में ही हुआ है । प्राचीन समय में संस्कृत का क्षेत्र बहुत व्यापक था । एक अपेक्षा से उसका सर्वत्र निर्बाध साम्राज्य था । और तो क्या, भारत का एक साधारण कर्मकर भी संस्कृत जानता था, प्रांजल संस्कृत में बोलता था । पर आज स्थिति एकदम बदल गई है । कर्मकर की बात तो कहीं रही, बौद्धिक एवं शिक्षित कहलाने वाले वर्ग में भी ऐसे व्यक्ति बिलकुल नगण्य हैं, जो संस्कृत का ज्ञान रखते हैं । इसकी ही यह परिणति है कि भारतीय संस्कृति के मौलिक संस्कार क्रमशः लुप्त होते जा रहे हैं । उनके स्थान पर असांस्कृतिक तत्व प्रभावी हो रहे हैं। जन-जीवन में बढ़ते भौतिकवाद का एक कारण मौलिक संस्कृति का क्रमशः लुप्त होना ही है । अतः भारतीय समाज को यदि हमें भौतिकवाद से बचाना है, तो यहां की मौलिक संस्कृति की सुरक्षा करनी होगी और इसके लिए संस्कृत भाषा के अध्ययन को महत्व देना होगा ।
समन्वय की भावना का विकास
संस्कृत भाषा के ग्रन्थों को पढ़ने से यह बात बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट होती है कि इस भाषा के विद्वानों ने बहुत ऊंचे-ऊंचे और उदार - उदार विचार जगत् को दिए हैं। यदि आज उनके विचारों को लेकर चला जाए तो पारस्परिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा की वृत्ति उन्मूलित हो जाए । प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्र सूरि ने कहा
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥
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