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ऋषिप्रधान देश
भारतवर्ष सदा से ही धर्मप्रधान देश रहा है। यहां सर्वोच्च प्रतिष्ठा धर्म के आदर्शों की रही है । बड़े-से-बड़े अर्थपति, सत्ताधीश और विद्वान को वह महत्त्व नहीं मिला, जो एक अकिंचन ऋषि को मिला है, बल्कि उनके चरणों में अपना मस्तक टिका कर धनकुबेरों, चक्रवर्ती सम्राटों ने धन्यता की अनुभूति की है। ऋषि-मुनियों की यह प्रतिष्ठा परोक्ष रूप से धर्म और धर्म के आदर्शों की ही प्रतिष्ठा है, क्योंकि ऋषि-मुनि धर्म के मूर्त रूप होते हैं, धर्म के आदर्शों को उनके जीवन-व्यवहार में साकार रूप में देखा जा सकता है इस अपेक्षा से मैं इस देश को ऋषिप्रधान देश ही कहता हूं, भले लोग इसे कृषिप्रधान देश मानते हैं । यों कृषिप्रधान देश माननेवालों से मेरा कोई विरोध नहीं है, पर सांस्कृतिक दृष्टि से यह ऋषिप्रधान देश ही है, यह तो स्वीकार करना ही होगा ।
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आचार की
प्रमुखता
भारतीय चिंतन में जीवन का अभिप्रेत धर्म का केवल विचारात्मक पक्ष नहीं रहा, बल्कि प्रमुख लक्ष्य आचारात्मक पहलू रहा । जीवन के कणकण में धर्म के आदर्श परिव्याप्त रहें, यहां के ज्ञानियों व चिन्तकों का दृष्टिबिन्दु यह था । यही कारण है कि यहां सदा से आचार को सर्वाधिक महत्व मिला, आचारवान को सर्वाधिक सम्मान की दृष्टि से देखा गया । संसार भर के लोग सदाचार और सच्चरित्र की शिक्षा लेने यहां आते । पर आज स्थिति बदल गई है । औरों की बात तो बाद में है, धर्म के नेता या धर्मगुरु कहलाने वालों का जीवन भी अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है । आत्म-साधना और तपश्चर्या का जीवन छोड़ वे बाह्य आडम्बर, सुख-सुविधा और आरामतलबी में फंसते जा रहे हैं । त्याग और आकिंचन्य का मार्ग छोड़कर करोड़ों की संपत्ति इकट्ठी करने में जुट रहे हैं। मैं नहीं समझ पाता, ऐसी स्थिति में वे जनता के आध्यात्मिक मार्ग-दर्शन के अपने दायित्व को कैसे निभाएंगे ? जनता को त्याग, तपस्या और संयम की प्रेरणा कैसे देंगे ? अतः यह अत्यंत अपेक्षित है कि धर्मगुरु त्याग-तपस्या और साधना का जीवन जीएं। अपनी गिरती प्रतिष्ठा
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