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प्रकार का बना रहे हैं कि उसके अनुरूप साधन-सामग्री जुटाने के लिए उन्हें प्रचुर मात्रा में अर्थ अपेक्षित होता है । इस स्थिति में वे येन-केन-प्रकारेण अर्थ-प्राप्ति के लिए व्याकुल हो जाते हैं । यह व्याकुलता उन्हें अर्थार्जन में उचित-अनुचित का विवेक नहीं करने देती, नैतिक और प्रामाणिक नहीं रहने देती । फलत: वे झूठ, चोरी, धोखा, छल, प्रपंच जैसी किसी भी दुष्प्रवृत्ति को करते संकोच नहीं करते । अलबत्ता मैं मानता हूं कि सभी व्यापारी अनैतिक और भ्रष्ट नहीं होते। नैतिक और प्रामाणिक व्यवहार करने वाले व्यापारी भी देखने को मिलते हैं । पर कुछ व्यापारी भी यदि भ्रष्ट आचरण करते हैं, अनैतिक एवं अप्रामाणिक व्यवहार करते हैं, तो भी बदनामी पूरे व्यापारी-समाज की होती है, इस तथ्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसलिए मैं चाहता हूं, राष्ट्र का प्रत्येक व्यापारी अपने आचरण और व्यवहार से नैतिक एवं प्रामाणिक बने । इससे वह स्वयं तो एक अच्छे व्यापारी के गौरव को प्राप्त करेगा ही, पूरे व्यापारी-समाज को भी अपनी खोई प्रतिष्ठा को प्राप्त करने में योगभूत बन सकेगा। अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र की भी बहुत बड़ी सेवा उसके द्वारा हो सकेगी । मैं आशा करता हूं, व्यापारी लोग इस बिन्दु पर गंभीरता से चिन्तन कर एक शुभ शुरुआत करेंगे।
कानपुर १२ सितम्बर १९५८
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महके अब मानव-मन
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