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ब्रह्मचर्य की साधना
ब्रह्मचर्य आत्म-शुद्धि एवं जीवन की पवित्रता का अन्यतम साधन है। भारतीय संस्कृति में अहिंसा व सत्य को जैसा महत्त्व दिया गया है, वैसा ही महत्त्व ब्रह्मचर्य को भी दिया गया है। ब्रह्मचर्य को दो रूपों में समझा जाना आवश्यक है । सूक्ष्म विश्लेषण में जाएं तो हमें कहना होगा कि आत्मस्वरूप में संस्थित एवं संचरण करना ब्रह्मचर्य है । अब स्थूल रूप से विश्लेषित करें तो कहना होगा कि विषयवर्जन ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की साधना में संलग्न व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह इन्द्रिय-संयम करे। कान, आंख आदि सभी इन्द्रियों को असंयम से संयम की ओर मोड़े। उसके कान अश्लील और कामोत्तेजक शब्द न सुनें । उसकी आंखों में कभी वैकारिक दृष्टि न उभरे । वह बहुत गरिष्ठ भोजन न करे । इसी प्रकार वह अतिभोजन का वर्जन करे । वह ऐसे वातावरण में न रहे, जो विषय-वासना को भड़कने में निमित्त बने । हमारे यहां ब्रह्मचर्य की नव बाड़ें बताई गई हैं। जिस प्रकार खेती की सुरक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य की साधना के लिए एकदो नहीं, पूरी नौ बाड़ें बताई गई हैं। इतना ही नहीं, इनके साथ एक परकोटा भी बताया गया है। इनका मुख्य आधार इन्द्रिय और मन का संयम ही है। इसके साथ ही वातावरण की अनुकूलता-प्रतिकूलता का भी चिंतन रहा है। ब्रह्मचर्य की सम्यक् साधना की दृष्टि से इनका महत्त्व स्वयंसिद्ध है । जो साधक इन बाड़ों के प्रति जागरूक नहीं रहता, वह ब्रह्मचर्य की साधना नहीं कर सकता। यदि करता भी है तो उसके कभी भी स्खलित होने का खतरा बना रहता है । आत्मार्थी साधक यह खतरा क्यों कर मोल लेगा?
___ साधु-साध्वियों की तरह ब्रह्मचर्य की संपूर्ण साधना गृहस्थों के लिए शक्य नहीं है, व्यावहारिक भी नहीं है । पर एक सीमा तक तो वे इसकी साधना कर ही सकते हैं। कर ही क्यों सकते हैं, उनके लिए आवश्यक भी है । वे अपने जीवन में असीमित विषय-भोग से ऊपर उठकर उसका कोई-नकोई सीमाकरण अवश्य करें। यह न केवल उनकी आत्मिक-पवित्रता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
कानपुर, ७ सितम्बर १९५८
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