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इसकी क्या जरूरत है ? यह धरती ही स्वर्ग बन सकती है, बशर्ते सच्चरित्र के प्रति मानव-मानव गंभीर बन जाए। पर अक्सर सत्ता, पदलिप्सा और अर्थवाद की भूख व्यक्ति को अपने पथ से डिगा देती है। मानव सन्मार्ग पर अडिग रहे, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह अपने आत्मबल और आत्म-साहस को उद्दीप्त कर गंतव्य-पथ पर बढ़ता जाए। ऐसा हुआ तो उसकी गति न प्रतिकूल परिस्थितियों से कुंठित होगी और न बाधाएं ही उसे रोक सकेंगी।
कानपुर १७ अगस्त १९५८
चरित्र-निर्माण : राष्ट्रीय अभ्युदय का आधार
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