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चरित्र-निर्माण : राष्ट्रीय अभ्युदय का आधार
महान् संस्कृति का देश
भारत एक विशाल राष्ट्र है। इसकी एक महान् संस्कृति है। इसका अपना एक गौरवशाली इतिहास है। अपनी कुछ दुर्लभ विशेषताएं हैं। यहां उच्चता या पूज्यता के मापदड धन, भौतिक संपदा, वैभव और सत्ता नहीं रहे। यह संयम, त्याग और सच्चरित्र में देखी गई। बड़े-से-बड़े धनकुबेर, सत्ताधीश और सम्राट ने एक अकिंचन-त्यागी के चरणों में अपना मस्तक नमाने में गौरव माना, धन्यता की अनुभूति की। अहिंसा और मैत्री यहां के जीवन-आदर्श रहे। आज भी अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का जो महत्वपूर्ण स्थान है, वह इसकी त्यागप्रधान संस्कृति तथा अहिंसा एवं समन्वयमूलक नीति के कारण ही है।
परन्तु आज भारतीय मानस का विश्लेषण किया जाए तो यह तथ्य किसी से भी छुपा नहीं रहेगा कि उसके दृष्टिकोण में अन्तर आ रहा है। अतीत के उन संयम एवं त्यागमूलक आदर्शों से उसकी श्रद्धा डगमगा रही है। उसके परिणामस्वरूप सच्चरित्र, सचाई, प्रामाणिकता, नैतिकता, ईमानदारी जैसे सद्गुण उसके जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं। यह आत्म-पराभव की स्थिति है। इस स्थिति से उबरने के लिए संयम एवं त्यागमूलक आदर्शों की पुनः प्रतिष्ठा करनी होगी। प्रश्न पैदा होता है, पुनःप्रतिष्ठा का उपाय क्या है ? इसका एकमात्र उपाय है - दृष्टिकोण में व्याप्त वैपरीत्य का निरसन, संयम और त्याग में निष्ठा एवं शिक्षा में चरित्र को अनिवार्य स्थान । पर इस संदर्भ में एक बात स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूं। अतीत के संयम एवं त्यागमूलक आदर्शों की पुन:प्रतिष्ठा से मेरा तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि आप एकांत रूप से पुराणपंथी बन जाएं, नए विकास से अपनी आंखें मूंद लें। मेरा आशय यह है कि जो शाश्वत आदर्श हमें अतीत में जीवन-शुद्धि का पथ-दर्शन देते थे और आज भी दे रहे हैं, उन्हें न भूला जाए। ज्ञानार्जन का उद्देश्य
मुझे सर्वाधिक चिंता इस बात की है कि आज राष्ट्र का यानी नई
परित्र-निर्माण : राष्ट्रीय अभ्युदय का आधार
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