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अस्तेय की साधना
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जीवन का परम लक्ष्य, दिव्य लक्ष्य है— शांति । लोभ, भौतिक आसक्ति, सम्पदा और तज्जन्य विग्रह, संघर्ष और दुरुपक्रम न केवल परम लक्ष्य की प्राप्ति में मानव के लिए बाधक ही बनते हैं, बल्कि उससे दूर भी ले जाते हैं । इनसे कैसे छूटा जाए, जीवन के दिव्य लक्ष्य की ओर कैसे बढ़ा जाए, मानव की इस चिरन्तन उत्कंठा के समाधान में विरति - त्याग या संयम का अनादि स्रोत प्रवाहित होता है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह उसके विश्लेषित रूप हैं । इनमें से एक अस्तेय तत्व की चर्चा करना चाहूंगा ।
अस्तेय की अवस्थिति
अस्तेय का सीधा अर्थ है - अचौर्य - चोरी न करना । परन्तु इसकी सूक्ष्म व्याख्या में यदि हम जाएं तो हमें कहना होगा कि आत्मा का सहजवृत्ति में बने रहना अस्तेय है । सहज अवस्था में अनुवर्तित होते व्यक्ति को कहीं कुछ भी छुपाने की आवश्यकता नहीं रहती । छुपाने की आवश्यकता वहां होती है, जहां भय है, आशंका है । और भय व आशंका वहां है, जहां यथार्थ के प्रतिकूल आचरण है । चोरी करने वाला छुपाता है । क्यों ? इसलिए कि उसे प्रतिपल यह चिन्ता सताती रहती है कि कहीं कोई दूसरा देख न ले, कहीं वह पकड़ में न आ जाए । इस स्थिति में उसका भयविह्वल और शंकाविचलित होना बहुत स्वाभाविक है । इससे उसके जीवन की शांति लुटती है ।
अस्तेय का मूलभूत कारण
कहा जाता है कि आज व्यक्ति को राज्य एवं समाज की ओर से सुरक्षा की गारण्टी नहीं है, आश्वासन और निश्चितता नहीं है । वह अपना भविष्य सुरक्षित नहीं पाता । उसे सुरक्षित बनाए रखने लिए वह औचित्य - अनौचित्य, करणीय - अकरणीय की बात न सोचता हुआ कुछ भी करने को उतारू हो जाता है । इसी कारण वह चोरी जैसा अनुचित एवं जघन्य कर्म
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