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स्वयं नहीं करता । यह जीवन के आचार-पक्ष की उपेक्षा का ही दुष्परिणाम है कि आज राष्ट्र में सर्वत्र परमार्थ के स्थान पर स्वार्थ, सदाचार के स्थान पर भ्रष्टाचार, संयम के स्थान पर असंयम, प्रामाणिकता के स्थान पर अप्रामाणिकता, सत्य के स्थान पर असत्य तथा श्रद्धा के स्थान पर छद्म प्रभावी हो रहा है।
और तो क्या, जन-सेवा जैसा कार्य भी स्वार्थपरायणता से जुड़ रहा है। क्या यह दंभ नहीं है ? स्वार्थ छोड़े बिना परमार्थ सध जाए, यह कभी भी संभव नहीं है। सेवा का सबसे पहला कदम अपनी जीवन-शुद्धि है। प्रकारान्तर से हम इस बात को यों कह सकते हैं कि सेवा का सबसे पहला कदम आत्म-सेवा है, जिसके बिना कि जन-सेवा की बात निरर्थक है । जिसने अपने जीवन को नहीं मांजा, छल, कपट, झूठ, विश्वासघात, अनीति जैसे दुर्गुणों से मुंह नहीं मोड़ा, वह जन-सेवा क्या करेगा। जो स्वयं नहीं सुधरा, वह जनता को सुधार की क्या दिशा देगा। इसलिए सबसे पहली अपेक्षा यही है कि व्यक्ति अपना ध्यान स्वयं के सुधार पर केंद्रित करे । सच्ची सेवा
आप देख रहे हैं, देश में स्वातंत्र्य आया पर इस स्वातंत्र्य के परिणामस्वरूप जन-जीवन में जो सुख और आनन्द की धारा प्रवाहित होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई। लोगों ने कल्पना की थी- देश स्वतंत्र होने के पश्चात अन्याय नहीं टिकेगा । कोई रिश्वत नहीं लेगा। एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और धोखे की मनोवृत्ति नहीं पनपेगी । सर्वत्र सुख और चैन की बंशी बजने लगेगी। पर क्या यह सब उस भिखारी के स्वप्निल वैभव और ठाट-बाट जैसा नहीं है, जो सपना टूटने के साथ ही समाप्त हो गया। आज की जो स्थिति है, वह आपसे छुपी नहीं है । क्या अधिकारी, क्या व्यापारी, क्या मजदूर, क्या मिल मालिक, क्या विद्यार्थी, क्या अध्यापक, क्या अभिभावक सभी वर्गों के लोग एक विषमता, निराशा एवं उद्वेग की छाया में हैं । ऐसी स्थिति में सार्वजनिक कार्यकर्ताओं पर एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी आती है । वे अपनी जीवन-साधना से समाज में नव-प्रेरणा भरें । राष्ट्र के पतनोन्मुख चरित्र को सहारा देने के लिए उच्च आचार एवं नैतिकता की एक मजबूत दिवाल खड़ी करें और उसकी पहली ईंट वे स्वयं बनें। इस दिशा में अणुव्रत आंदोलन उनके लिए पथ का आलोक बन सकता है । इस आलोक में कदम-कदम बढ़ते जाएं। उनकी सफलता असंदिग्ध है।
सीतापुर १२ जून १९५८
महके अब मानव-मन
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