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समाज-सुधार की प्रक्रिया
स्वयं से शुरुआत हो
आज चारों ओर समाज-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण की चर्चा है। निर्माण भले किसी भी स्तर पर क्यों न हो, वह स्वागतार्ह है । पर इस सन्दर्भ में एक बात बहुत महत्वपूर्ण है । समाज-निर्माण एवं राष्ट्र-निर्माण की चर्चा करनेवाले तथा इसकी आकांक्षा करनेवाले सबसे पहले स्वयं के जीवन का निर्माण करें। शुभ शुरुआत स्वयं से होगी, तभी समाज-निर्माण एवं राष्ट्रनिर्माण की आकांक्षा फलीभूत हो सकेगी। अन्यथा वह मात्र चर्चा और आकांक्षा तक ही सीमित रह जाएगी, जिसकी कि कोई सार्थकता मैं नहीं देखता । मैं पूछना चाहता हूं, क्या रोटी की चर्चा करने मात्र से पेट भर जाता है ? स्पष्ट है, नहीं भरता। फिर उसकी चर्चा की क्या सार्थकता रह जाती है । इसी अपेक्षा से मैंने कहा, समाज-निर्माण एवं राष्ट्र-निर्माण की कोरी चर्चा की कोई सार्थकता दिखाई नहीं देती । उसकी सार्थकता तभी है, जब उसकी क्रियान्विति की सम्यक् प्रक्रिया को अपनाया जाए । उसकी सम्यक् प्रक्रिया यही है कि व्यक्ति व्यक्ति स्वयं के निर्माण पर अपना ध्यान केंद्रित करे । व्यक्ति-व्यक्ति के जोड़ से ही समाज और राष्ट्र का निर्माण होता है, इसलिए व्यक्ति-व्यक्ति के निर्माण से समाज-निर्माण एवं राष्ट्र-निर्माण स्वयं फलीभूत हो जाएंगे। आचार की उपेक्षा समाप्त हो
आज समाज-निर्माण एवं राष्ट्र-निर्माण की बात कार्यरूप नहीं ले रही है, इसका मूलभूत कारण यही तो है कि व्यक्ति स्वयं के जीवन निर्माण की दिशा में गंभीर नहीं है । व्यति के जीवन-निर्माण के दो पक्ष हैं-विचार और आचार । एक तरफ विचारों की उच्चता अपेक्षित है तो दूसरी तरफ आचार की शुद्धता । आज का आदमी बातें तो बहुत ऊंची-ऊंची करता है, पर उसके अनुरूप अपने जीवन को ढालने का प्रयास नहीं करता। मैं नहीं समझता, ज्ञान को वे बड़ी-बड़ी बातें किस काम की, जिनका आचरण व्यक्ति
समाज-सुधार की प्रक्रिया
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