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________________ ४७ सुख को मृगमरीचिका से बचें आत्म-विस्मृति की स्थिति __ मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। पर आज वह आत्म-दौर्बल्य से ग्रस्त है। इसलिए वह असुविधा और प्रतिकूल परिस्थिति से लोहा लेने का साहस अपने में नहीं पाता है । असीम शक्तियों का धनी इस प्रकार असहायसा बन जाए, यह मानवता की बहुत बड़ी अवमानना है । प्रश्न है, यह क्यों है ? इसका उत्तर सीधा-सा है-मानव अपने स्वरूप को भूला जा रहा है। वह सुखाभास को सुख मान भ्रमित हो रहा है। कृत्रिम तृप्ति में आसक्त बन रहा है। इसका दुष्परिणाम प्रत्यक्ष है। आज वह सत्य, शौच, सदाचार, नैतिकता से परे हो रहा है। उसे ऐसा लगता है कि मैं इनसे जुड़ा रहकर अपनी लक्ष्यसंसिद्धि नहीं कर सकता। यह कैसी आत्म-विस्मृति की स्थिति है ! मेरी स्पष्ट मान्यता है कि जब तक मानव इस स्थिति से नहीं उबरेगा, तब तक उसका जीवन एक विडम्बना से अधिक कुछ नहीं होगा । इसलिए यह नितान्त अपेक्षित है कि वह आत्म-स्वरूप को पहचानने का प्रयास करे। यह प्रयास उसे अपनी आत्म-शक्तियों से परिचित कराएगा, प्रतिकूलता एवं असुविधा से लोहा लेने का सामर्थ्य प्रदान करेगा । वह मानवीय प्रतिष्ठा के अनुकूल अपने जीवन का निर्माण कर सकेगा। भौतिकता का बढ़ता प्रभाव आज की यह बहुत बड़ी त्रासदी है कि मानव-जीवन पर भौतिकवाद प्रभावी बनता जा रहा है। इस कारण मानव अपनी राह से भटक गया है। वह आवश्यकताओं को बढ़ाता है और उनकी पूर्ति के लिए तरह-तरह के उपक्रम करता है । इस प्रयत्न में वह भूल जाता है कि न्याय और सत्य की हत्या नहीं होनी चाहिए। उसे तो मात्र एक बात याद रहती है कि उसका स्वार्थ पूरा होना चाहिए। भले वह शोषण से हो, अन्याय से हो, अनीति से हो, असत्य से हो । कैसी बात है कि वह ऐसा करता तो इसलिए है कि उसे सुख की प्राप्ति होगी, शांति की प्राप्ति होगी, परन्तु यथार्थ में उसे न सुख ही मिलता है और न शांति ही ! यह तो एक मृग-मरीचिका है। सुख की मृगमरीचिका से बचें ८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003136
Book TitleMaheke Ab Manav Man
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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