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________________ राग और विराग का दर्शन १४९ इलाचीकुमार उनके करतब देखकर मुग्ध हो गया । हर आदमी में राग होता है । नाटक, सिनेमा आदि से राग को उद्दीपन मिलता है, राग प्रबल बनता है । नटराज की कन्या बहुत सुन्दर थी । इलाचीकुमार उस नट कन्या पर मुग्ध हो गया । नाटक सम्पन्न हुआ । इलाचीकुमार अपने घर आया किन्तु उसका मन उस नटकन्या में उलझ गया । उसने अपने पिता से कहा- मैं उस नटकन्या से विवाह करना चाहता हूं। पिता ने कहा- यह कभी सम्भव नहीं है। उस जमाने में जातिप्रथा का बोलबाला था । एक ओर कुलीन वंश, उच्च गोत्र और सम्पन्न, समृद्ध परिवार था तो दूसरी ओर नट जैसे निम्न कर्म के आधार पर जीविकोपाजन करने वाला परिवार । दोनों में कहीं मेल नहीं था। इलाचीकुमार के अनुरोध को सर्वथा अस्वीकार कर दिया गया । इलाचीकुमार ने कहा- उसके बिना मेरा जीना भी सम्भव नहीं है। जब राग चरम सीमा पर पहुंचता है तब आदमी क्या-क्या कर लेता है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती । बात तन गई । अंततः पिता ने कहा- जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करों । वह नटराज के पास गया । उसने नटराज स कहा- मैं एक मांग लेकर आया 'बोलो ! क्या चाहते हो ?' 'मैं तुम्हारी कन्या से शादी करना चाहता हूं और इसके बदले मैं तुम्हें तुम्हारी कन्या के तौल के बराबर सोना दूंगा।' __ मुझे यह शर्त मान्य नहीं है । मैं अपनी कन्या तुम्हें नहीं दे सकता । इलाचीकुमार यह सुनकर अवाक् रह गया । नटराज ने कहा- 'जो व्यक्ति अपने पिता के धन के सहारे जीता है, उसे मैं अपनी कन्या नहीं दे सकता । मैं अपनी कन्या का विवाह उसीके साथ करूंगा, जो अपना गुजारा अपने पुरुषार्थ से चलाएगा । दूसरों के सहारे अपना जीवन जीने वाले व्यक्ति को मैं कन्यादान नहीं करूंगा।' यह बहुत मार्मिक बात है । दूसरे के भरोसे पर जीने की बात बहुत खतरनाक होती है। प्रसिद्ध कहावत है— पूत कपूतां यूं धन सांचै, पूत सपूतां क्यूं धन संचै- 'इसे गाया तो बहुत किन्तु यह सत्य व्यक्ति के मानस में रमा नहीं। इलाचीकुमार ने कहा- 'आप अपनी शर्त प्रस्तुत करें । मैं उसे पूरा करने के लिए कटिबद्ध हूं।' 'अगर मेरी कन्या से शादी करना है तो नटमण्डली में आओ, नट के करतब सीखो, धन कमाओ और सारी नटमण्डली को सन्तुष्ट करो । यदि इतना धैर्य है तो शादी की 'बात रो।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003134
Book TitleSamasya ko Dekhna Sikhe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages234
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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