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________________ ७८ किसने कहा मन चंचल है एक है-आत्म-रमण । हमारी ऊर्जा, विद्युत्शक्ति, प्राणशक्ति जो मस्तिष्क में होती है वह जब नीचे की ओर प्रवाहित होती है तो काम के स्पंदन होते हैं । वे स्पंदन सुख की अनुभूति कराते हैं। सुख का अनुभव स्पंदनों में है, किसी वस्तु में नहीं। ये स्पंदन अन्य उपकरणों के द्वारा भी पैदा किए जा सकते हैं। दोनों में कोई अन्तर नहीं आएगा। कामकेंद्र की ओर प्रवाहित होने वाली ऊर्जा से काम के स्पंदन पैदा होते हैं । उनसे सुख की अनुभूति होती है । मनुष्य सुख मानता है। अब उन स्पंदनों के प्रतिपक्षी स्पंदन पैदा करने के लिए हमें उल्टा चलना पड़ेगा । हमें प्रतिसंलीनता करनी पड़ेगी । मस्तिष्क की धन-विद्युत् है, पोजिटिव विद्युत् है, और कामकेंद्र की ऋण विद्युत् है, नेगेटिव विद्युत है। सहस्रार चक्र में जब प्राणधारा का प्रवाह चलेगा तब आत्मरसी स्पंदन पैदा होंगे । उन स्पंदनों से जो सुख की अनुभूति होगी वह अपूर्ण होगी। इसकी तुलना में कामकेंद्र के स्पंदनों से होने वाली सुख की अनुभूति नगण्य है । जो व्यक्ति उस अनुभूति तक पहुंच जाता है, वह वहां से नीचे उतरना नहीं चाहता । घटों तक सुख की अनुभूति में लीन रहता है। वहां से हटने के बाद भी विषाद नहीं होता । उसे उल्टा अधिक आनन्द, अधिक उल्लास और अधिक शक्ति का अनुभव होता है । एक प्रश्न है-सुख क्या है ? ऋण विद्युत् का धन विद्युत् के साथ जो योग है, वह सुख है। यह सामान्य सुख नहीं, आध्यात्मिक सुख है। कामकेंद्र की निषेधात्म शक्ति है । उसका योग जब विधायक शक्ति के साथ होता है तब अध्यात्म सुख उत्पन्न होता है। तब विचित्र प्रकार के स्पंदन पैदा होते हैं। हमारे चैतन्य का, ज्ञान का केन्द्र है नाड़ी-संस्थान । यह समूचे शरीर में परिव्याप्त है । किन्तु पृष्ठरज्जु के निचले सिरे से मस्तिष्क तक का स्थान चैतन्य का मूल केंद्र है । आत्मा की अभिव्यक्ति का यही स्थान है । यही चित्त का स्थान है। यही मन का और इंद्रियों का स्थान है। संवेदन, प्रतिसंवेदन, ज्ञान - सारे यहीं से प्रसारित होते हैं । शक्ति का भी यही स्थान है। ज्ञानवाही और क्रियावाही तंतुओं का यही केंद्र स्थान है। मनुष्य ऊर्जा को अधोगामी करना ही जानता है, ऊर्ध्वगामी करना नहीं जानता। केवल दिशा का ही परिवर्तन हुआ कि जो शक्ति नीचे की ओर जाती थी वह ऊपर की ओर जाने लगती है । इतना-सा ही अन्तर पड़ता है । मस्तिष्क की ऊर्जा का नीचे जाना भौतिक जगत् में प्रवेश करना है । कामकेंद्र की ऊर्जा का ऊपर जाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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