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आध्यात्मिक सुख अध्यात्म जगत् में प्रवेश करना है । ऊर्जा के नीचे जाने से पौद्गलिक सुख की अनुभूति होती है । ऊर्जा के ऊपर जाने से अध्यात्म सुख की अनुभूति होती है। यह केवल विद्युत् का परिवर्तन है। इसे कहा गया-अन्तमैथुन, आत्मरित आत्मरमण । आत्मरमण की बात ज्यर्थ नहीं है । प्रश्न होता है कि आत्मा अमूर्त है, दृश्य नहीं है, फिर आत्म-रमण कैसे ? प्रश्न ठीक है । इसके समाधान में कहा गया कि आत्म-रमण का केंद्र हमारे पास विद्यमान है। इसमें हम रमण कर सकते हैं।
शरीर में सात धातुएं हैं । सातवां धातु है-शुक्र, वीर्य । कहा गया है-'मरणं बिन्दुपातेन, जीवनं बिन्दुधारणात्'-बिन्दु के पात से मरण होता है और बिन्दु के धारण से जीवन प्राप्त होता है। बिन्दु क्या है -इसे ठीक समझना है। मस्तिष्क में, जो प्राण ऊर्जा है, यह जो ग्रे मैटर (Grey matter) है, यह जो धूसर हिस्सा है, यही है बिन्दु, यही है वीर्य । 'सहस्रारोपरि बिन्दु:'-सहस्रार के ऊपर बिन्दु की अवस्थिति है । उस बिन्दु के साथ जब शक्ति का मिलन होता है तब आत्म-रति पैदा होती है।
बिन्दु के पात से मरण और बिन्दु के रक्षण से जीवन-यह बात बिल्कुल ठीक है । जब प्राण की ऊर्जा नीचे जाती है तब मनुष्य मरता है और जब प्राण की ऊर्जा ऊपर जाती है तब मनुष्य जीता है, अमर हो जाता है। वह आत्मा को प्राप्त कर लेता है। यह आत्मा के आरोहण का मार्ग है, अध्यात्म के विकास का मार्ग है । जब तक मनुष्य की चेतना नाभि के नीचे के केन्द्रों के आसपास ही उलझी रहती है तब तक आरोहण नहीं होता। गुणस्थानों के क्रमारोहण की बात भी यही है। जब ऊर्जा का निम्नगामी प्रवाह होता है तब मनुष्य पहले, दूसरे, तीसरे गुणस्थान में ही रहता है। जब चौथा गुणस्थान आता है तो विवेक की प्रज्ञा जागती है और ऊर्जा नाभि के आसपास आती है। फिर क्रमशः आरोहण होता है । साधक ऊपर उठता है। वह सुषुम्ना के मार्ग से मस्तिष्क के केन्द्र तक पहुंचता है और धीरे-धीरे आगे बढ़ता हुआ केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है, आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है। यह मार्ग छोटा है । यात्रा भी छोटी है। परंतु है बहुत ही महत्त्वपूर्ण । इसमें खपना पड़ता है। सुषुम्ना से चलना और सहस्रार तक पहुंचनाइतना-सा करना है। रास्ता छोटा है। केवल चढ़ाई ही चढ़ाई है। आरोहण ही आरोहण है।
इस आरोहण में श्रद्धा का होना अत्यंत आवश्यक है। हम श्रद्धा को
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