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ऊर्जा को ऊर्ध्वयात्रा
सम्बन्ध है कामकेन्द्र से और रसन इन्द्रिय का कुछ टेढ़ा सम्बन्ध है कामकेन्द्र से । रसना का संयम और काम का संयम-दोनों साथ चलते हैं। जैसे ही रसना का संयम होता है, वहां के स्पंदन जब कम होते हैं, स्पंदन जब विजित होते हैं तब कामवासना के स्पंदन भी कम होने लग जाते हैं।
जैसे ही जीभ का संयम किया, आध्यात्मिक स्पंदन शुरू हो जाते हैं । ये स्पंदन हमारी पकड़ में भी आते हैं। साधना करने वाले साधक को यह स्पष्ट अनुभव होगा कि ये स्पंदन इतने सुखद होते हैं कि वे कामकेन्द्रों के स्पंदनों को भी पराभूत कर डालते हैं।
ऊर्जा की ऊर्ध्व यात्रा में रसनेन्द्रिय बहुत बाधक होती है। जब हम उसकी ऊर्जा को वहां से हटा लेते हैं और उसे स्थिर कर देते हैं तब वह बाधा समाप्त हो जाती है। रसलोलुपता नीललेश्या का परिणाम है । यह परिणाम समाप्त हो जाता है। ऐसा होने पर ही धर्मलेश्याएं पूर्ण जागृत हो जाती हैं। ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा, प्राण की ऊर्श्वयात्रा, चित्तवृत्तियों की निर्मलता, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान की स्थिति-ये सब घटित होती हैं । सारी स्थिति ही बदल जाती है-रूपान्तरण घटित होने लगता है । यह सब तपस्या का फल है।
तपस्या के द्वारा तीन बातें फलित होती हैं१. ऊर्जा का अधिक संचय । २. ऊर्जा का अल्प व्यय । ३. ऊर्जा की ऊर्ध्व यात्रा ।
यह घटित होने पर ज्योतिपंज के साथ साधक का संपर्क स्थापित हो जाता है। वह रश्मि जो 'मैं हूं'--इतनी-सी प्रतीत होती थी वह ज्योतिपुंज में मिल जाती है और तब 'मैं हं' बदल जाता है और केवल 'है' शेष रह जाता है। 'मैं' की बात समाप्त हो जाती है। जो रश्मियां बिखरी पड़ी थीं, जो एक जालीदार ढक्कन से छन-छनकर बाहर फैल रही थीं, वे सारी रश्मियां सिमटकर ज्योतिपुंज में लीन हो जाती हैं । उस समय ज्योतिपुंज के साक्षात्कार का प्रश्न भी समाप्त हो जाता है। वहां कौन ज्योतिपुंज और कौन मैं—यह भेद मिट जाता है। सब कुछ ज्योतिर्मय बन जाता है।
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