________________
७०
किसने कहा मन चंचल है
ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा का एक परिणाम है-वृत्तियों की फलदान-शक्ति को नष्ट कर देना। तब वे वृत्तियां स्वतः नष्ट हो जाती हैं। जब तक उनको पोषण और सिंचन मिलता रहता है तब तक वे पनपती रहती हैं। जब सिंचन ही बन्द हो जाता है तब उनका पनपना समाप्त हो जाता है। कुछ समय तक वे तरंगें जाती-आती हैं। साधक जब आगे ही बढ़ता चला जाता है तब एक दिन ऐसा आता है कि वे तरंगें समाप्त हो जाती हैं । उधर उनका आवागमन मिट जाता है। यह सब होता है तप के द्वारा।
साधक को कहा गया है कि शरीर को प्रकंपित कर दो, वृत्तियों को प्रकंपित कर दो, कर्म-शरीर को प्रकंपित कर दो। वृत्तियों के केन्द्रों को इतना हिला दो कि उनका मूल उखड़ जाए और वे अपने स्थान से च्युत हो जाएं । राग का, द्वेष का, कषाय का, कषाय से उत्पन्न होने वाले आस्रवों का और आस्रवों से उत्पन्न होने वाली वृत्तियों का मूल उखड़ जाए ।
आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा-~-ये चार कामनामूलक संज्ञाएं हैं । क्रोध संज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा और लोभ संज्ञाये चार मनोमूलक संज्ञाएं हैं। ये आठों समाप्त हो जाएं। उनकी आसक्ति, समाप्त हो जाए। उनको उखाड़ने का, मिटाने का एकमात्र उपाय हैतपस्या, ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन, ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा।
एक बात पर हमें ध्यान देना है। रसनेन्द्रिय और कामकेन्द्र का गहरा संबंध है। ध्यान की प्रत्येक प्रक्रिया में यह ध्यान दिया जाता है कि वृत्तियों की चंचलता को समाप्त करने के लिए जीभ को स्थिर करना आवश्यक है। साधक ध्यान करने बैठा है। बहुत विकल्प आ रहे हैं, चंचलता है। उस समय यदि वह साधक जीभ को उलटकर तालु की ओर स्थिर कर देता है, तालु पर लगा देता है तो विचित्र प्रकार के स्पंदन प्रारम्भ हो जाते हैं और विकल्प शांत हो जाते हैं।/ विकल्पों को शान्त करने का यह सुन्दर प्रयोग है। जब जीभ स्थिर होती है तब वृत्तियां शान्त होने लग जाती हैं । कामकेन्द्र और रसनेन्द्रिय का बहुत बड़ा संबंध है। साधना के ग्रन्थों में रसनेन्द्रिय को जीतने पर बल दिया गया है। यह निरर्थक नहीं है, सार्थक है। कामवासना पर विजय पाना है तो पहले रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करो। रसनेन्द्रिय का संयम करो।
पांच इन्द्रियों में दो इन्द्रियां कठोर और अजय मानी जाती हैं । एक है स्पर्शन इन्द्रिय और दूसरी है रसन इन्द्रिय । स्पर्शन इन्द्रिय का सीधा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org