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किसने कहा मन चचल है
जब मूलाधार चक्र सोया रहता है तब उत्तेजना बढ़ती है। स्वाधिष्ठान चक्र सोया रहता है तब आदमी कामुक होता है। मणिपूर चक्र सोया रहता है तब आदमी में ईर्ष्या, घृणा, क्र रता के भाव पैदा होते हैं। तीन अप्रशस्त लेश्याओं के परिणाम से इनकी तुलना करें, सारी बातें ज्यों की त्यों मिल जाएंगी।
तीन अप्रशस्त लेश्याओं के ये ही स्थान हैं । यहां से अघोयात्रा प्रारंभ होती है, चेतना अधोयात्रा प्रारंभ करती है। सारी प्राण ऊर्जा का प्रवाह नीचे की ओर होने लग जाता है ।
___ एक रूपक है। जैन आचायों ने लोकपुरुष की कल्पना की। उन्होंने लोक को पुरुष के रूप में चित्रित किया। लोकपुरुष के तीन भाग हैं-उर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक। उर्ध्वलोक में हैं देवता, मध्यलोक में हैं मनुष्य और अधोलोक में हैं नैरयिक । मोक्ष उर्ध्वलोक में है । हृदय से हमारा उध्वंलोक प्रारंभ होता है । उर्वलोक जहां देवताओं का निवास है, वहां सिद्ध जीवों का निवास है, मुक्तात्माओं का निवास है। मध्यलोक में मनुष्यों का निवास है । कटि से नीचे का भाग अधोलोक है । यह नरकावास है।
हृदय से पर धर्म लेश्याओं का स्थान है और हृदय से नीचे अधर्म लेश्याओं का स्थान है।
हम देह-प्रेक्षा में हृदय से प्रेक्षा प्रारंभ करते हैं। यह भी सकारण है। प्राणऊर्जा की यात्रा सबसे पहले ऊर्ध्व होनी चाहिए । उसका पूर्ण विकास होने पर फिर अधोयात्रा में कोई खतरा नहीं होना। देवता किसी कारणवश नीचे आता है तो कोई कठिनाई नहीं होती। उसकी तो मात्र एक यात्रा है । यदि चेतना नीचे ही उलझी रह जाती है तो बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है । यदि हम उस ज्योतिपुंज का, परम तत्त्व का, पारमार्थिक तत्त्व का, परम सत्ता का साक्षात्कार चाहते हैं तो उर्ध्वयात्रा करनी होगी। प्राण-ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा हुए बिना कुछ भी नहीं होता। निम्न प्रकार की वृत्तियों से छुटकारा नहीं हो सकता। व्यक्ति कितना ही सुने, माने और व्यवहार के स्तर पर जाने, फिर भी वह इन निम्नस्तरीय वृत्तियों से नहीं छूट सकता। ऊर्ध्वयात्रा प्रारम्भ होते ही वृत्तियों में परिवर्तन आने लग जाता है ।
ऊर्ध्वयात्रा का प्रारंभ साधना का पहला चरण है। इसी का नाम है तपस्या। ऊर्जा को एकत्रित कर ऊर्ध्वगामी बनाना ही तपस्या है। ऊर्जा के बिना कुछ नहीं हो सकता। विस्फोटक किए बिना कुछ भी निष्पन्न नहीं
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