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________________ ऊर्जा की ऊर्ध्वयात्रा की चेतना के आस पास ही वे स्पंदन क्रियान्वित होते हैं। __हमारी एक शक्ति है--प्राणशक्ति । एक ही प्राणशक्ति अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती है । उसके दस रूप बन जाते हैं । इन्द्रियों के साथ जब प्राणऊर्जा काम करती है तो पांच प्राण बन जाते है-स्पर्शन इन्द्रिय प्राण, रसन इन्द्रिय प्राण, घ्राण इन्द्रिय प्राण चक्षु इन्द्रिय प्राण और श्रोत्र इन्द्रिय प्राण । वही प्राणधारा जब मन के साथ जुड़ती है तब मनोबल बन जाता है । जब वह वचन के साथ काम करती है तब वचनबल बन जाता है और वही जब काया के साथ जुड़ती है, तब कायबल बन जाता है। यही प्राणधारा जब श्वास के साथ जुड़ती है, श्वास को गतिशील बनाती है तब श्वासप्राण बन जाता है । वही प्राण की ऊर्जा जब जीवन को टिकाए रखने में सक्रिय होती है तब आयुष्यप्राण बन जाता है, जीवनशक्ति बन जाती है । एक ही प्राणधारा दस रूपों में विभक्त हो जाती है। एक ही नदी की दस धाराएं बन जाती हैं, दस प्रवाह बन जाते हैं। __जब प्राण की धारा नीचे की ओर प्रवाहित होती है, चित्त नीचे की ओर जाता है तब सारे अस्तित्व का, शरीर का और चेतना का केन्द्र कामकेन्द्र बन जाता है। उस कामकेन्द्र में उलझी हुई चेतना के आसपास कृष्णलेश्या के विचार पनपते हैं, नीललेश्या के विचार पनपते हैं, कापोतलेश्या के विचार पनपते हैं। अधर्म के जितने विचार हैं, आर्त और रौद्र ध्यान की जितनी परिणतियां हैं वे सारी इसी कामकेन्द्र के आसपास पनपती कृष्णालेश्या का एक लक्षण है-अजितेन्द्रियता । जिसमें कृष्णलेश्या होती है वह अजितेन्द्रिय होता है। यह इसका सूचक है कि ऐसी वृत्ति कामकेन्द्र के आसपास ही उत्पन्न होती है। कामकेन्द्र के पास जो चेतना है वह कृष्णलेश्या का ही परिणाम है। जैन दर्शन ने छह लेश्याओं के आधार पर जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया है, हठयोग ने उन्हीं तथ्यों का छह चक्रों के आधार पर प्रतिपादन किया है। दोनों की अपनी-अपनी परिभाषाएं हैं। यदि दोनों को परिभाषाओं से मुक्त कर दें तो तथ्य-प्रतिपादन अक्षरशः मिल जाता है। हठयोग तीन चक्रों को ऊपर और तीन चक्रों को नीचे मानता है। मूलाधार, स्वाधिष्ठिान और मणिपूर-ये तीन चक्र हृदय से नीचे हैं और अनाहत, आज्ञा और सहस्रार--ये तीन चक्र हृदय से ऊपर होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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