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प्रवचन ६
| संकलिका
• संधि विदित्ता इह मच्चिएहि । [आयारो, २३१२७] • अवि उड्ढं ठाणं ठाएज्जा । [आयारो, २८१]
० पूरुष मरणधर्मा मनुष्य के शरीर की सन्धि को जानकर कामासक्ति __से मुक्त हो।
• घुटनों को ऊंचा और सिर को नीचा कर कायोत्सर्ग करें। • यात्रा का उद्देश्य : चेतना का ऊर्ध्वगमन । • कामुकता और रसास्वादन-दो मौलिक वृत्तियां । • चेतना कामकेन्द्र में उलझी रहती है। • आतं-रोद्र ध्यान और अधर्म लेश्या का यही केन्द्र है। • नाभि सन्धिस्थल है। • हृदय से ऊर्व यात्रा का प्रारम्भ । • ऊध्र्वयात्रा होने पर वृत्ति उठेगी, तरंग आएगी पर ऊर्जा का सहारा
न मिलने पर बिना फल दिए लौट जाएगी। • स्थिरासन से ऊर्जा का व्यय कम होता है । • ऊर्जा के ऊर्वगमन का मुख्य हेतु है तप ।
तप के तीन फलित० ऊर्जा का अधिक संचय । • ऊर्जा का अल्प व्यय । ० ऊर्जा का ऊर्वीकरण ।
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