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________________ किसने कहा मन चंचल है करता जाता है । उसका मार्ग सीधा नहीं है, टेढ़ा-मेढ़ा है । यात्रा छोटी, यात्रापथ छोटा, सब कुछ छोटा, किन्तु है बहुत टेढ़ा-मेढ़ा । इस मार्ग पर ही हमारी विवेक की चेतना जागती है। हमें अस्तित्व का बोध होता है और हेय-उपादेय की स्पष्ट दृष्टि विकसित होती है। प्रत्याख्यान की चेतना जागती है । अपने-आप सब कुछ छूटने लगता है। जो मनुष्य केवल छोड़ने को चलता है तो जिसे वह छोड़ना चाहता है, वह वस्तु उसके पीछे दौड़ती है। यह सच है। किन्तु विवेक का अर्थ केवल छोड़ना नहीं है। प्रत्याख्यान का अर्थ केवल छोड़ना नहीं है। प्रत्याख्यान तब होता है जब हेय और उपादेय-दोनों हमारे सामने होते हैं। दोनों प्रतिमाएं हमारे सामने होती हैं । इन दोनों में जो प्रतिमा आकर्षक होती है, वह हमें अपनी ओर खींच लेती है। प्रत्याख्यान तभी सधता है जब उपादेय की प्रतिमा आकर्षक होती है, शक्तिशाली होती है। हेय अपने-आप छूट जाता है। उसे प्रयत्नपूर्वक छोड़ने की आवश्यकता ही उत्पन्न नहीं होती। यदि केवल हेय ही हो, उपादेय न हो तो मनुष्य क्या करेगा? वह मर जाएगा। उपादेय है तो हेय को छोड़ा जा सकता है। अच्छी बात सामने आती है तब बुरी वस्तु छूट जाती है। सुखद वस्तु आतो है तब दुःखद वस्तु छूट जाती है। पहले लोग बैलगाड़ियों से यात्रा करते थे। जब रेल और मोटरों का आविष्कार हुआ तब बैलगाड़ियां छूट गयीं। लोग रेल और मोटरों की यात्रा करने लगे। हवाई जहाज के आविष्कार ने सभी वाहनों को पीछे ढकेल दिया। यह होता है । अच्छी चीज बुरी चीज को पीछे ढकेल देती है। किसी के कहने की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्याख्यान से संयम की चेतना जागृत हो जाती है । संयम की चेतना से अपने आप में लीन रहने की बात प्राप्त हो जाती है। साधक को लगता है कि अब भीतर रहना ही अच्छा है। मन भीतर की खूटी से बंध जाता है । मन चैतन्य के शांत सागर में डुबकियां लगाने लग जाता है । मन ज्योतिपुंज के प्रकाश में इतना आकर्षण देखता है कि अब वह बाहर के अंधेरे में जाना पसंद नहीं करता, भीतर ही रहना चाहता है। ऐसी स्थिति में एक भीषण संघर्ष खड़ा हो जाता है । भीतर के आस्रव, भीतर की वृत्तियां, भीतर के आवेग संघर्षरत हो जाते हैं। प्रमाद और विषय-कषाय अपना काम शुरू कर देते हैं। मूर्छा भी सक्रिय हो जाती है। राग-द्वेष-ये दोनों अपनी रक्षापंक्तियां मजबूत करने लग जाते हैं। भयंकर युद्ध छिड़ जाता है। यह युद्ध साधक के लिए एक अवसर है। आचारांग में कहा है-'जुद्धारिहं खलु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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