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________________ ऊर्जा का विकास : तप दो प्रकार के लोग हैं। कुछ आत्मा को मानते हैं। कुछ आत्मा को नहीं मानते । कुछ लोगों ने यह मान लिया कि आत्मा है। यह मानने वाली बात अधिक नहीं टिकती। किसी ने प्रबल तर्कों के द्वारा यह प्रतिपादित किया कि 'आत्मा नहीं है, आत्मा को मानने वाली बात टूट जाती है । केवल मानने का यही परिणाम होता है । मानकर चलने वाला सदा दूसरों के सहारे चलता है, वह दूसरे को ही मानकर चलता है। वह किसी व्यक्ति को मानता है, किसी ग्रन्थ को मानता है, या किसी और को मानता है, किन्तु वह मानता है, जानता नहीं। मानने का मतलब है-परावलम्बन, दूसरों के सहारे चलना । अपने पैरों से नहीं चलना, दूसरों के पैरों से चलना, दूसरों के कंधों पर बैठकर चलना। यह नितान्त परावलम्बन है । जानने की बात तत्र आती है जब कायोत्सर्ग की स्थिति प्राप्त होती है। जानने की स्थिति प्राप्त होती है तब कायोत्सर्ग अपने-आप सध जाता है। कायोत्सर्ग आत्मा तक पहुंचने का द्वार है । आत्मा की झलक मिलती है तो कायोत्सर्ग अपने-आप सघ जाता है। अध्यात्म का अर्थ है-अपने अस्तित्व की उपलब्धि, अपने चैतन्य स्वरूप की उपलब्धि, ज्ञाता-द्रष्टाभाव की उपलब्धि। हम जानते हैं, देखते हैं, किन्तु हमारा जानना भी शुद्ध नहीं है और देखना भी शुद्ध नहीं है। दही में चीनी मिली हो तो न दही का स्वाद रहा और न चीनी का ही स्वाद रहा। तीसरे स्वाद की उत्पत्ति हो गयी। दही का खट्टापन भी नहीं रहा और चीनी की मिठास भी नहीं रही। ऐसा ही कुछ चैतन्य के साथ रहा है। न चैतन्य का ही पूरा स्वाद प्राप्त है और न पुद्गल का ही पूरा स्वाद प्राप्त है। तीसरा मिला-जुला स्वाद प्राप्त है । इसे ही हम बहुत बड़ी उपलब्धि मान रहे हैं। यदि चैतन्य का शुद्ध स्वाद कभी प्राप्त हो जाए तो पता चल सकता है कि वह स्वाद कितना अनुपम है । एक बार भी यदि हम उस स्वाद तक पहुंच गए तो फिर वहां से लौटना नहीं होगा। साधक उसे छोड़ नहीं पाएगा। एक बार भी यदि उस ज्योतिपुंज की झलक मिल जाए तो साधक उसके लिए पागल हो जाएगा। फिर वह प्राणों की बलि दे सकेगा, मृत्यु को सहर्ष स्वीकार कर सकेगा, पर उस अपूर्व अनुभूति को नहीं छोड़ सकेगा। उसके लिए वह अनुभूति ही सब कुछ होगी। यह है अध्यात्म का मार्ग। यह मार्ग कंटकाकीर्ण है, संघर्षों से भरा है। यह संघर्ष का मार्ग है। अध्यात्म के मार्ग पर बढ़ने वाला साधक पग-पग पर संघर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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