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________________ ५४ किसने कहा मन चंचल है चंचलता प्राण-ऊर्जा की चंचलता है। शरीर की सारी चंचलता मन की चंचलता है। यदि प्राण की धारा चैतन्य की ओर बहने लग जाती है, यदि मन की धारा चैतन्य की ओर प्रवाहित होने लग जाती है तो शरीर शान्त हो जाता है, क्योंकि चंचलता पैदा करने वाली प्राण की ऊर्जा उसे प्राप्त नहीं हो रही है, मन की गति भी उसे प्राप्त नहीं हो रही है। तब शरीर शान्त और स्थिर हो जाता है। उसका उत्सर्ग हो जाता है । ऐसी स्थिति में ही पूरा कायोत्सर्ग सधता है। यदि आप मन को ज्ञाता और द्रष्टा के साथ नहीं जोड़ते हैं, जो जानने वाला है और देखने वाला है उसके साथ मन का योग नहीं करते हैं, तो काया का उत्सर्ग नहीं हो सकता, प्रवृत्ति का विसर्जन नहीं हो सकता। ___ कायोत्सर्ग के दो चरण हैं। एक है--शिथिलीकरण और दूसरा हैविसर्जन । शिथिलीकरण विसर्जन नहीं है । विसर्जन का अर्थ है-काया और चैतन्य के पृथक्त्व का स्पष्ट अनुभव । यह लगने लगे कि काया कहीं अलग पड़ी है और चैतन्य कहीं अलग पड़ा है। पिंजड़ा रह गया, पंछी अलग हट गया, अनन्त आकाश में उड़ने लग गया। ढक्कन पड़ा है और ज्योति उससे भिन्न हो गयी है। ऐसा कायोत्सर्ग तब होता है जब मन अध्यात्म में रम जाता है। उस समय हाथ, पैर, वाणी और समस्त इन्द्रियां अपने-आप संयत हो जाती हैं। हम दोनों ओर से चलें । बाहर से भी चलें और भीतर से भी चलें । बाहर से चलें तब सबसे पहले हाथों का संयम करें, पैरों का संयम करें, वाणी का संयम करें, इन्द्रियों का संयम करें। जब हम भीतर से चलें तब इस मुद्रा में बैठ जाएं जिससे मन की दिशा बदल जाए, प्राण की धारा बदल जाए और मन प्राण की सारी ऊर्जा भीतर की ओर बहने लग जाए। यह बाहर से भीतर की ओर गति है। एक गति है--भोतर से बाहर की ओर और दूसरी है--बाहर से भीतर की ओर। यदि मन भीतर की ओर रम गया, यदि अस्तित्व की कोई झलक मिल गयी, यदि अस्तित्व में मन रम गया तो शरीर के समस्त अवयव अपने-आप शांत हो जाएंगे। प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है, अपेक्षा नहीं है। चंचलता अपने-आप मिट जाएगी। उस समय साधक 'सुसमाहितात्मा' बन जाएगा । आत्मा का वह स्वरूप प्रकट होगा जो पहले कभी नहीं हुआ था। इस स्वरूप को आज तक आप या तो इन्कार करते रहे हैं या केवल मानते रहे हैं, किन्तु जानते नहीं रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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