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ऊर्जा का विकास : तप
कायोत्सर्ग भेद-विज्ञान की साधना है । तोड़ते जाओ, भेद करते जाओ, शेष जो बचेगा वह वास्तविक होगा, परमार्थ होगा, परम सत्य होगा । परम - सत्य अभेद्य नहीं है । भेद करते जाओ - शरीर और चैतन्य का भेद, आकांक्षा और चैतन्य का भेद, प्रसाद और चैतन्य का भेद, उत्तेजना और चैतन्य का भेद, भेद ही भेद | शरीर से भिन्न, इच्छा से भिन्न, नींद से भिन्न, प्रमाद से भिन्न, आवेग से भिन्न । इस भिन्नता से आत्मोपलब्धि की ओर यात्रा होने लग जाती है | अस्तित्व उपलब्ध हो जाता है । हाथों का संयम करो, पैरों का संयम करो, वाणी का संयम करो, इन्द्रियों का संयम करो, अध्यात्म में चले जाओ । अध्यात्म में जाने का रास्ता है - संयम । इस पथ पर सबसे पहले प्राप्त होता है— कायोत्सर्ग |
अध्यात्म की यात्रा में सबसे स्थूल साधन है— शरीर । श्वास शरीर .से भिन्न नहीं है । वह उसी का एक हिस्सा है अंग है । प्रवृत्ति के तीन स्रोत हैं— मन, वचन और शरीर । श्वास प्रवृत्ति का मूल स्रोत नहीं है । वह शरीर का ही एक अंश है |
साधक कायोत्सर्ग करना चाहता है, काया को छोड़ना चाहता है, चंचलता को मिटाना चाहता है, किन्तु प्रश्न होता है कि यह कैसे किया जाए ? काया की चंचलता को कैसे मिटाया जाए ? जब तक प्राण की ऊर्जा पूरे शरीर में बह रही है, जब तक मन की चंचलता पूरे शरीर में है, तब तक शरीर की प्रवृत्ति को नहीं छोड़ा जा सकता, शरीर को स्थिर नहीं किया जा सकता, शांत नहीं किया जा सकता । कायोत्सर्ग नहीं हो सकता । - कायोत्सर्ग करने के लिए मन के घोड़े को कहीं और बांधना होगा । इसे हिलती हुई खूंटी से न बांधें । कायोत्सर्ग अपने-आप हो जाएगा । आप मन को भीतर ले जाएं उसे चैतन्य के अथाह समुद्र में डुबकियां लगाने दें । ढक्कन से ढके हुए इस ज्योतिपुंज में इसे जाने दें। जब मन इस ज्योतिपुंज में लीन होगा, जब मन चैतन्य के इस शांत समुद्र में डुबकियां लगायेगा तब शरीर अपने आप शान्त होगा, स्थिर होगा, व्यक्त होगा । शरीर की सारी
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