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________________ ऊर्जा का विकास : तप ५७ दुल्लंह- युद्ध का यह अवसर बहुत ही दुर्लभ है। साधक को जमकर मोर्चा लेना है। यह बड़ा अवसर है। इसका लाभ उठाना है। ऐसा अवसर कभीकभी प्राप्त होता है। एक ओर से राग-द्वेष आक्रमण करते हैं, दूसरी ओर से उनके सैनिक उत्तेजना, प्रमाद, कषाय आक्रमण करते हैं। साधक उन सबको तोड़कर ही आगे बढ़ सकता है । वह उन्हें समाप्त करके ही अस्तित्व तक पहुंच सकता है। जब साधक वहां तक पहुंच जाता है तब उसे लगता है क्यों श्वास को देखें, क्यों शरीर के चैतन्य-केन्द्रों को देखें, क्यों अनशन करें, क्यों ऊनोदरी करें, क्यों संयम करें—यह सारा झंझट है। सीधा रास्ता है कि ज्ञाता-द्रष्टाभाव को ही देखें, उसे ही देखते ही रहें । पहुंच जाने वाले को लगता है कि यह सीधा रास्ता है, किन्तु जो अभी तक नहीं पहुंचा है, उसे यह रास्ता बहुत टेढ़ा-मेढ़ा और कठिन लगता है। उसे पग-पग पर जूझना पड़ता है। सारे आक्रमण एक साथ होते हैं। उन आक्रमणों को विफल किए बिना वह एक पर भी आगे नहीं बढ़ सकता। साधना के प्रारंभ में इसका अनुभव नहीं होता । साधना के प्रारम्भकाल में इन आस्रवों को इतना खतरा नहीं होता कि उन्हें भी स्थान छोड़ना पड़े । उन सभी वृत्तियों को भी खतरा नहीं होता कि उन्हें भी स्थान छोड़ना पड़े। किन्तु जब साधक दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ता है और उन सभी आस्रवों तथा वृत्तियों पर प्रहार करना प्रारंभ करता है, उनके स्थायी आश्रयों को छुड़ाने का प्रयास करता है, तब वे सब कुछ क्रुद्ध सांप की भांति फुफकारने लगते हैं क्योंकि साधक ने उन्हें उखेड़ने का प्रयास किया है। जब तक उन्हें छेड़ा नहीं जाता तब तक वे अपना कार्य शांतभाव से करते रहते हैं। ज्यों ही उन्हें छेड़ा गया, वे क्रुध होकर उभर आते हैं, फुफकारते हैं भय दिखाते हैं। सांप बांबी में शांत बैठा है । आप पास से गुजर जाते हैं । सांप नहीं फुफकारता। उसे थोड़ा-सा छेड़ें, वह क्रुद्ध होकर डसने दौडता है। यही बात आस्रवों और वृत्तियों की है । इनके अनादिकालीन स्थायी स्थान को छुड़ाना सरल नहीं है। ज्यों-ज्यों साधक आगे बढ़ता है, वृत्तियां और तीव्र होती हैं। जब साधक साधना के मध्य में पहुंचता है तब वे जमी हुई वृत्तियां, जमी हुई वासनाएं और उत्तेजनाएं, इतने तीव्ररूप से उभरती हैं कि साधक विचलित होने की स्थिति में आ जाता है। यदि उस समय उसे कोई सहायक नहीं मिलता है तो वह साधना से च्युत हो जाता है। उस समय योग्य गुरु या योग्य सहायक की आवश्यकता होती है। वह समय खतरनाक होता है। उस समय जो वृत्तियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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