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किसने कहा मन चंचल है
हूं, किन्तु वीतराग बनने का ध्येय अवश्य हो । वहां तक हमें पहुंचना है । हम यात्रा तो प्रारम्भ करें । ध्येय की दिशा में एक पग तोधरें । कभी-कभी केवल सुख का भी अनुभव करें। प्रतिदिन सुख-दुःख के जोड़े का अनुभव करते हैं, 'किन्तु कभी-कभी केवल सुख का ही अनुभव करें। जब केवल सुख का अनुभव होगा तब जीवन में संयम फलित होगा। सुख-दुःख के जोड़े के प्रति जो तीव्र आसक्ति है, निश्चित ही उसमें एक छेद हो जाएगा और वह धीरे-धीरे टूटने लगेगी।
चैतन्य के अनुभव की सतत धारा प्रवाहित हो जाए, यह सरल नहीं है, बहुत ही कठिन है । किन्तु साधना के द्वारा कभी-कभी तो उसका अनुभव करें। उसके लिए समय लगाएं और केवल चैतन्य का अनुभव करें, कोई दूसरा विकल्प न आए।
निरन्तर अप्रमत्त रहना, जागरूक रहना सरल नहीं । लम्बी साधना के बाद ही पूर्ण जागरूक रहा जा सकता है। किन्तु थोड़ा अभ्यास तो ऐसा होना ही चाहिए कि जो भी किया जाए वह बेहोशी में नहीं, होशपूर्वक किया जाए । आप यह संकल्प करें कि दिन में एक-दो घंटा इतना जागरूक रहूंगा कि जो भी करूंगा वह जागत अवस्था में ही करूंगा। पैर उठे तो पता रहे कि पैर उठ रहा है। पर टिके तो पता रहे कि पैर टिक रहा है। जो कुछ हो वह जानकारी में हो, अजानकारी में न हो । मन और कर्म-दोनों साथसाथ चलें । यदि अल्प समय के लिए भी ऐसा नहीं होता है तो रूपान्तरण की बात घटित ही नहीं हो सकती।
समता की साधना भी दुष्कर है। एक ही दिन में सारी विषमता मिट जाए, समता प्रतिष्ठित हो जाए-ऐसा नहीं होता । संभव नहीं है। इतना क्षयोपशम, इतना विकास कहां है कि एक साथ ऐसा घटित हो जाए। किन्तु कम से कम यह तो प्रयोग करें कि ज्ञान ज्ञान में प्रतिष्ठित हो । संवेदना न हो । संवेदना को तोड़कर केवल ज्ञान में प्रतिष्ठित रहना समता का विकास करना है।
__ यह रूपान्तरण की प्रारंभिक प्रक्रिया है। यदि यह नहीं होती है तो पूरे रूपान्तरण की चर्चा ही व्यर्थ होगी।
कुम्हार चाक पर मिट्टी का लोंदा चढ़ाता है और कुछ ही समय में रूपान्तरण शुरू हो जाता है । चाक घूमता है । मिट्टी के लोंदे का रूप बदलता जाता है। यदि वह रूपान्तरण प्रारम्भ नहीं होता तो घड़ा कभी नहीं बन
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