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________________ व्यक्तित्व का रूपान्तरण : समता ४६ हो जाता है। जिस बिन्दु पर व्यक्तित्व का पूरा रूपान्तरण होता है वहां व्यक्तित्व ही समाप्त हो जाता है । व्यक्तित्व रूपान्तरण के चरम बिन्दु पर पहुंचकर समाप्त हो जाता है। वहां से अस्तित्व की सीमा प्रारंभ हो जाती है। वह व्यक्तित्व का चरम बिन्दु और अस्तित्व का पहला बिन्दु है । दोनों की सीमा सटी हुई है । जहां व्यक्तित्व की सीमा समाप्त होती है वहां अस्तित्व की सीमा प्रारंभ होती है। वहां फिर 'केवल' रहता है। कोई द्वन्द्व नहीं रहता । 'केवल' का साम्राज्य बन जाता है । यह साधना से होने वाला परिणाम है। ___इस बिन्दु तक पहुंचना सरल नहीं है, कठिन है । तीन काल हैं-अतीत, वर्तमान और भविष्य । अतीत का प्रतिक्रमण होता है, भविष्य का प्रत्याख्यान होता है और वर्तमान की आलोचना । पतंजलि ने लिखा है -'हेयं दुःखमनागतं'-अनागत का दुःख हेय है, जो कर्मविपाक भोगा जा चुका, वह हेय नहीं बनता, क्योंकि वह भुक्त हो गया है। वर्तमान भोगारूढ़ होता है। वह हेय नहीं हो सकता । उसे हम छोड़ नहीं सकते । हेय होता है अनागत । अभी जो आया नहीं है, उसे ही भोगा जा सकता है । अतीत के कर्म-विपाक को हेय नहीं बनाया जा सकता। वर्तमान के कर्म-विपाक को, जो भोगारूढ़ हो गया है, हेय नहीं बनाया जा सकता। केवल जो अनागत है, उसे हेय बनाया जा सकता है । इसीलिए अनागत कर्म का प्रत्याख्यान होता है। तीन बातें हुई-अनागत का प्रत्याख्यान, अतीत का प्रतिक्रमण और वर्तमान की आलोचना, वर्तमान का सामायिक या संवर । साधकों के लिए यह आवश्यक है कि वे अतीत का प्रतिक्रमण करें। प्रमादवश हमारी चेतना जो बाहर चली गयी थी उसको मूल स्थान में लायें । पछतावे की जरूरत नहीं है । जो हो चुका उसके लिए पछतावा कैसा ? प्रतिक्रमण आवश्यक है। चेतना को मूल स्थान प्राप्त कराना आवश्यक है । वर्तमान की आलोचना करें । वर्तमान के कर्म को देखें, प्रेक्षा करें। किन्तु सबसे बड़ा क्षेत्र है-अनागत का । उसका प्रत्याख्यान करें । जो हेय हैं, उसे छोड़ें। यदि साधना के द्वारा हेय नहीं छूटता है तो रूपान्तरण कैसे घटित होगा ? व्यक्तित्व का रूपान्तरण हुए बिना साधना फलित नहीं होती। जो प्रतिमाएं बना रखी हैं उनका अंग-भंग होना ही चाहिए। कुछ परिवर्तन तो होना ही चाहिए। मैं आज ही वीतराग बन जाने की बात नहीं कह रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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