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किसने कहा मन चंचल है
है, तब चौथी किरण फूटती है। चौथी किरण है - वीतरागता । जब यह किरण फूटती है तब चेतना सभी मलों से मुक्त हो जाती है, वीतराग बन जाती है । वीतराग का अर्थ है - 'पर' से हटकर अपने आप में प्रतिष्ठित होना । इस अवस्था में 'पर' का संबंध समाप्त हो जाता है । यह बड़ी उपलब्धि है । आज तक ज्ञान 'पर' में प्रतिष्ठित था । दूसरों में टिका हुआ था, दूसरों के घर में रह रहा था । उसे अपना घर प्राप्त नहीं था । किन्तु जब चेतना की यह किरण -- वीतरागता प्रस्फुटित होती है तब ज्ञान ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाता है । वह अपने स्थान पर आ जाता है । उसे अपना घर मिल जाता है । वीतरागता और कैवल्य में कोई दूरी नहीं है, कोई अन्तर नहीं है । जैसे वीतरागता प्रकट होती है, चेतना पूर्ण रूप अनावृत्त हो जाती है । जो मूढ़ता का आवरण था, वह सदा के लिए हट जाता है । मूढ़ता के टूटते ही वीतरागता प्रकट हो जाती है और वीतरागता के प्रकट होते ही कैवल्य प्राप्त हो जाता है। दोनों के बीच में कोई आवरण नहीं रहता । कैवल्य का अर्थ है - शुद्ध चेतना का प्रादुर्भाव ।
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अस्तित्व की झलक का पहला फल है विवेक । हमारी चेतना के जागरण की पहली भूमिका है— विवेक । विवेक की निष्पत्ति है-तटस्थता | यह चेतना के जागरण की दूसरी भूमिका है । तटस्थता अर्थात् उपेक्षा । उपेक्षा: के दो अर्थ हैं- ध्यान न देना और निकटता से देखना उप + ईक्षा = उपेक्षा । जो तटस्थ होता है वही निकटता से देख सकता है | पक्षपात में रहने वाला निकटता से नहीं देख सकता । वह प्रिय के प्रति अनुरक्त होगा और अप्रिय के प्रति द्विष्ट होगा । वह एक के प्रति राग करेगा और दूसरे के प्रति द्वेष करेगा | जिसमें झुकाव होता है वह सही अर्थ में निकटता से नहीं देख सकता । वह दूर से ही देखता है । न प्रिय को ठीक से समझ सकता है और न अप्रिय को ठीक से समझ सकता है ।
उपेक्षा का एक अर्थ है- - ध्यान न देना, अवगणना करना । जो तटस्थ हो जाता है, उसके सामने प्रिय भी आता है, अप्रिय भी आता है। किन्तु वह दोनों की उपेक्षा कर, अवगणना कर आगे बढ़ जाता है । उपेक्षा का फल है - समता ।
विवेक का फल है - तटस्थता । तटस्थता का फल है - उपेक्षा । उपेक्षा का फल है - समता ।
हमारी साधना संपन्न होती है तब तक व्यक्तित्व का पूरा रूपान्तरण
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