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व्यक्तित्व का रूपान्तरण: समता
है तब कभी सोने और कभी जागने की बात समाप्त हो जाती है । फिर सतत जागरण होता है, अखंड ज्योति जलने लगती है । इससे पूर्व मन और कर्म - दोनों टूटे-टूटे रहते हैं । मन कुछ और होता है और कर्म कुछ और होता है । मन कहीं होता है और प्रवृत्ति कहीं होती है। दोनों साथ-साथ रहने वाले भी अलग-अलग हो जाते हैं । किन्तु जब यह अनुभव की धारा तेज होती है, चेतना की यह तीसरी किरण - अप्रमाद का प्रकाश फैलता है तो कर्म और मन दो नहीं रहते, एक हो जाते हैं, एक साथ जुड़ जाते हैं । वे इतने जुड़ जाते हैं कि उस अवस्था में फिर ज्ञान और आचरण दो नहीं रहते । • उनका भेद समाप्त हो जाता है ।
कुछ लोग ज्ञानवादी होते हैं और कुछ लोग क्रियावादी । पहले यह दृष्टिकोण साधना के क्षेत्र में चला था। फिर यह तर्क के क्षेत्र में आया । कुछ लोग केवल ज्ञानवादी हो गए और कुछ लोग केवल आचारवादी, क्रियावादी हो गए । किन्तु इस साधना की भूमिका में ज्ञान और आचार का कोई द्वैत नहीं होता । हम नहीं कह सकते कि यह ज्ञान है और यह आचार है । दोनों एक हो गए। किसी व्यक्ति ने उसे अभिव्यक्ति देने के लिए ज्ञान कहा और किसी ने आचार कहा । आचार कह दिया तो ज्ञान उसमें समा गया और ज्ञान कह दिया तो आचार उसमें समा गया। दोनों को तोड़ा नहीं जा सकता । किन्तु जैसे-जैसे साधना की यह बात विस्मृत होती गयी, एक पक्ष आचारवाद का बन गया और एक पक्ष ज्ञानवाद का
बन गया ।
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अप्रमत्तता की जब अखंड ज्योति जल उठती है तब मन और प्रवृत्ति -दोनों साथ-साथ चलते हैं । तब एक भी काम ऐसा नहीं होता जिसके साथ - मन न हो । अंगुली उठती है । उसे पता होता है कि अंगुली उठी है | श्वास आता है तो पता रहता है कि श्वास आ रहा है, जा रहा है । उसकी कोई भी क्रिया बेहोशी में नहीं होती । सब कुछ होश में होता है । सब कुछ जागरण में होता है । कर्म के साथ मन चलता है । ऐसा एक भी व्यवहार नहीं होता जहां कर्म तो है, पर मन नहीं है । कर्म कहीं और है और मन कहीं और है - ऐसा नहीं हो सकता । अप्रमत्तता है रूपान्तरण की तीसरी किरण । इसमें फलित होता है—कर्म और चेतना का एकीकरण, अद्वैत, अभिन्नता ।
जैसे-जैसे साधना आगे बढ़ती है, अनुभव का प्रकाश सघन होता जाता
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