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किसने कहा मन चंचल है
कष्ट सहे । क्या हमारी चेतना के स्तर पर रहकर यह संभव है ? ऐसे कष्टों को हंसते हुए सह लेना संभव है। कभी संभव नहीं है । ऐसे कष्टों को इस स्तर पर सहा नहीं जा सकता। किन्तु जब सुख-दुःख से परे रहने की अनुभवशक्ति जागृत हो जाती है तब लगता है सुख भी नीचे है और दुःख भी नीचे है । जो संवेदनात्मक चेतना है वह नीचे है । जो संवेदन हैं, वे सब नीचे हैं। मैं तो केवल द्रष्टा हूं, देखने वाला हूं। ऐसा सोचने वाला, इस स्तर की चेतना पर जीने वाला भयंकर कष्टों को सहन कर सकता है। यह सहिष्णुता कहां से आती है ? इसका स्रोत है-भेदज्ञान ।
विवेक से हमारा भेदज्ञान प्रारंभ होता है और समता तक वह पुष्ट होता चला जाता है । भेदज्ञान की छेनी जब मलों को तोड़ती रहती है तब आगे से आगे अनुभव की प्रखरता बढ़ती जाती है और व्यक्ति संवेदना से ऊपर उठता जाता है। संवेदना से ऊपर उठना, उनकी भाषा में है समता और हमारी भाषा में है---सहिष्णुता । जो संवेदना के स्तर पर जीते हैं वे देखते हैं कि अमुक व्यक्ति कितने कष्टों को सह रहा है, कितना सहिष्णु है । किन्तु जो समता के स्तर पर हैं, अनुभव के स्तर पर हैं, संवेदनाओं से ऊपर उठ चुके हैं, उनके लिए सहिष्णुता नहीं, समता व्यवहत होती है।
अनुभव की चेतना जागृत होने पर, सुख-दुःख की संवेदनाओं से ऊपर उठने पर, सुख-दुःख को भोगता हुआ भी व्यक्ति तटस्थ रहता है । वह न अपने को सुखी मानता है और न अपने को दुःखी मानता है । यह दूसरा रूपान्तरण है-तटस्थता।
___ यह भी व्यक्तित्व के रूपान्तरण का अन्तिम बिन्दु नहीं है । इससे भी आगे चलना है । साधक अप्रमाद का प्रयोग करता है । वह अप्रमत्त रहकर चैतन्य की धारा को अविच्छिन्न रखने का प्रयत्न करता है । उस ज्योति को अखण्ड, शाश्वत, प्रज्वलनशील बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहता है। -किन्तु एक ओर से मूर्छा के थपेड़े लगते हैं । मूर्छा अपना काम करती है । साधक कभी जागता है और कभी सो जाता है । वह कभी जागरूक रहता है और कभी सुप्त रहता है । जागता है, सोता है। फिर जागता है, फिर सो जाता है। यह जागने और सोने का क्रम चलता रहता है। जब चेतना की तीसरी किरण फूटती है, अनुभव की शक्ति और अधिक प्रखर बनती है, भेदज्ञान की धारा सतत प्रवाही होती है, विवेक की छेनी और तेजी से चलती
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