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व्यक्तित्व का रूपान्तरण: समता
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है । जब तक व्याकुलता पैदा नहीं होती, तब तक उस दिशा में बढ़ा नहीं जा सकता । हम एकाग्रता का प्रयत्न नहीं कर रहे हैं । हम मन को चला रहे हैं। अंतर इतना सा ही आया है कि जो मन हमें चला रहा था, हम उसे चला रहे हैं । जो मन हमें क्रीड़ा करा रहा था, हम उसे कीड़ा करा रहे हैं । क्रीड़ा करने के लिए हमने उसे बहुत लंबा-चौड़ा मैदान दिया है । पूरा शरीर उसके क्रीड़ा के लिए प्रस्तुत है । वह शरीर में खेलता रहे, क्रीड़ा करता रहे। कहीं कोई बाधा नहीं है । अन्तर केवल दिशा का है। विवेक जागता है, प्रज्ञा जागती है, दिशा बदल जाती है, रूपान्तरण हो जाता है । जिसके हाथ में स्वामित्व था, वह छिन गया | स्वामित्व दूसरे के हाथ में आ गया। पहले हम मन के सेवक थे । विवेक जागा और हम मन के स्वामी हो गए। पहले M मन स्वामी था, अब वह सेवक बन गया । अब वह स्वामी के पीछे-पीछे. चलने वाला हो गया । रूपान्तरण हो गया । और कोई अन्तर नही आया । चंचलता तो मौजूद है |
साधना का अर्थ है - व्यक्तित्व का रूपान्तरण । यदि व्यक्तित्व का रूपान्तरण नहीं होता है और साधक ध्यान करते ही चले जाते हैं, तपस्या करते ही चले जाते हैं, साधना करते ही चले जाते हैं तो एक दिन स्वयं को अनुभव होता है कि ये सारी उपासनाएं व्यर्थ हैं इतने दिन तक इनकी उपासना की और कहीं भी नहीं पहुंच पाये । उसी बिन्दु पर आज हैं, जिस बिन्दु पर प्रारंभ में थे । इससे निराशा होती है और साधक साधना को छोड़ देने को ललचाते हैं ।
इतनी लंबी तपस्याएं कीं, दिनों, महीनों और वर्षों तक भूख-प्यास सहन की, कुछ भी नहीं मिला, कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ । सब व्यर्थ है । इससे चिपके रहना भूल है । इसे छोड़ दिया जाए ।
ध्यान करते रहे, पर व्यक्तित्व उस बिन्दु पर टिका रहा, कोई परिवर्तन नहीं आया तो ध्यान के प्रति रही हुई आस्था डगमगा जाएगी । जी चाहेगा कि उसे छोड़ दिया जाए ।
ध्यान की सार्थकता, तपस्या की सार्थकता और साधना की सार्थकता है - व्यक्तित्व का रूपान्तरण । इसका अनुभव स्वयं को तो होना ही चाहिए, दूसरों को भी होना चाहिए । दूसरों को हो ही यह आवश्यक नहीं है, स्वयं को तो होना ही चाहिए। ऐसा होने पर ही आस्था जमती है और साधक आगे से आगे बढ़ता जाता है । पहले जैसा था, आज वैसा ही
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