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व्यक्तित्व का रूपान्तरण : समता
जब चेतना का कोई कोना संकृत हो उठता है तो अपने अस्तित्व की एक झलक मिल जाती है । वह झलक हमारे लिए बहुत आवश्यक होती है । वह हमारी प्रज्ञा को जगा जाती है। उससे विवेक जागता है | जब मूर्च्छा की सघनतम प्रथम पंक्ति पर प्रहार होता है तब विवेक जाग उठता है | चेतना की प्रथम किरण फूट पड़ती है । अस्तित्व के प्रकाश की प्रथम किरण प्राप्त होती है । साधक कुछ आगे बढ़ता है | चेतना की दूसरी किरण फूटती है । एक अनुभव होना शुरू हो जाता है । पहली किरण में केवल दृष्टि स्पष्ट होती है । दूसरी किरण में सुख का अनुभव होने लगता है । ऐसा सुख जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया था । साधक आगे बढ़ता है । उसे एक और किरण उपलब्ध होती है । उससे चैतन्य का अनुभव, सुख का अनु भव सतत होने लग जाता है। उसकी धार अविच्छिन्न हो जाती है, कहीं खंडित नहीं होती । जीवन में अखंड ज्योति जल उठती है । साधक आगे बढ़ता है । चौथी किरण उपलब्ध होती है । उसे चेतना अपने बिन्दु पर पहुंच जाती है । सुख का अनुभव अपने शिखर पर पहुंच जाता है। वहां पहुंचा हुआ साधक फिर लौटकर आना नहीं चाहता ।
विवेक से संयम, संयम से अप्रमाद और अप्रमाद से वीतरागता । साधक एक-एक प्रकाश किरण को उपलब्ध करता हुआ आगे से आगे बढ़ता जाता है | साधना उस झलक से प्रारम्भ होती है जब से अस्तित्व का बोध होता है । जब तक किसी व्यक्ति को अस्तित्व की झलक नहीं मिलती तब तक उसके लिए साधना का कोई अर्थ नहीं होता, तपस्या का कोई अर्थं नहीं होता, ध्यान का कोई अर्थ नहीं होता । ध्यान वही व्यक्ति करता है, तपस्या वही व्यक्ति करता है, साधना वही व्यक्ति करता है जिसे अपने अस्तित्व की कोई झलक उपलब्ध हो जाती है । फिर उसके मन में एक छटपटाहट पैदा होती है, व्याकुलता पैदा होती है । एकाग्रता का मूल्य हो सकता है, किन्तु सर्वत्र उसका मूल्य नहीं होता । मन में छटपटाहट, चंचलता, व्याकुलता भी होनी चाहिए। उसका भी अपना मूल्य
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