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प्रवचन ४ : संकलिका
• कर्म कहीं, मन कहीं, बेहोशी में। अब कर्म के साथ मन का सतत
योग । सब कर्म जानते हुए। • ज्ञान 'पर' मैं प्रतिष्ठित था, अब ज्ञान (पर से च्युत होकर) ज्ञान में
प्रतिष्ठित है। • विवेक का फल-तटस्थता । तटस्थता का फल-उपेक्षा ।
उपेक्षा का फल-समता । • रूपान्तरण का प्रयोग :
० भेद-विज्ञान की अविच्छिन्न धारा । ० ऊर्जा का ऊर्वीकरण । ० चैतन्य प्रेक्षा।
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