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________________ ४४ किसने कहा मन चंचल है है-यह बात साधना में चल नहीं सकती । रूपान्तरण अवश्य ही होना चाहिए। रूपान्तरण होता है। एक साधक की अनुभव की भाषा में बताऊं कि रूपान्तरण क्या होता है ? जब तक विवेक जागत नहीं होता, साम्यग्दर्शन नहीं होता, प्रज्ञा नहीं जागती तब तक सुख और दुःख के जोड़ में हम लीन रहते हैं। उसे ही परम तत्त्व मानते हैं । जब प्रज्ञा जाग जाती है, विवेक जाग जाता है, दर्शन सम्यक् हो जाता है तब सुख-दुःख के जोड़े से हटकर, हमारी गति केवल सुख में होने लग जाती है। एक है-सुख-दुःख का जोड़ा और एक है-केवल सुख । जब तक विवेक नहीं जागता तब तक साधक सुख-दुःख में झूलता रहता है। कभी वह सुख का अनुभव करता है और कभी दुःख का । केवल सुख या केवल दुःख का अनुभव नहीं होता । दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख आता रहता है । मनचाहा भोजन मिला। खूब खा लिया । सुख की अनुभूति हुई । परिपाक काल में दुःख का अनुभव होने लगा । भोगों के भोग-काल में सुख की अनुभूति होती है और परिपाक-काल में दुःख की अनुभूति होती है। यह सुख-दुःख का जोड़ा बराबर चलता रहता है । दुःख इसलिए सह लिया जाता है कि उससे सुख भी मिलता है । यह ज्ञात है कि सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख होता है। यह चक्र चलता रहता है। रात के बाद दिन और दिन के बाद रात-यह क्रम है। आदमी इसके परे नहीं जा सकता । किन्तु जब विवेक जाग जाता है तब दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है, दर्शन सम्यक् हो जाता है । तब सुख-दुःख का जोड़ा नहीं रहता । केवल सुख रहता है, दुःख नहीं रहता। साधना के क्षेत्र में जोड़े की बात नहीं चलती। उसमें केवल की बात चलती है । ज्ञान और अज्ञान का एक जोड़ा है। किन्तु साधना के क्षेत्र में केवल ज्ञान चलता है, अज्ञान छूट जाता है। कोरा ज्ञान, संवेदना नहीं। सुख और दुःख का जोड़ा है । साधना के क्षेत्र में केवल सुख चलता है, दुःख छूट जाता है । कोरा सुख, दुःख नहीं। शक्ति-उत्कर्ष का एक जोड़ा है और शक्ति-हीनता का एक जोड़ा है। साधना के क्षेत्र केवल शक्ति होती है, शक्तिहीनता छूट जाती है। __जब तक विवेक नहीं जागता तब तक साधक जोड़े में ही चक्कर काटता रहता है। जब प्रज्ञा जाग जाती है तब स्पष्ट दीखने लग जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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