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किसने कहा मन चंचल है
है-यह बात साधना में चल नहीं सकती । रूपान्तरण अवश्य ही होना चाहिए।
रूपान्तरण होता है। एक साधक की अनुभव की भाषा में बताऊं कि रूपान्तरण क्या होता है ? जब तक विवेक जागत नहीं होता, साम्यग्दर्शन नहीं होता, प्रज्ञा नहीं जागती तब तक सुख और दुःख के जोड़ में हम लीन रहते हैं। उसे ही परम तत्त्व मानते हैं । जब प्रज्ञा जाग जाती है, विवेक जाग जाता है, दर्शन सम्यक् हो जाता है तब सुख-दुःख के जोड़े से हटकर, हमारी गति केवल सुख में होने लग जाती है। एक है-सुख-दुःख का जोड़ा और एक है-केवल सुख । जब तक विवेक नहीं जागता तब तक साधक सुख-दुःख में झूलता रहता है। कभी वह सुख का अनुभव करता है और कभी दुःख का । केवल सुख या केवल दुःख का अनुभव नहीं होता । दुःख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख आता रहता है । मनचाहा भोजन मिला। खूब खा लिया । सुख की अनुभूति हुई । परिपाक काल में दुःख का अनुभव होने लगा । भोगों के भोग-काल में सुख की अनुभूति होती है और परिपाक-काल में दुःख की अनुभूति होती है। यह सुख-दुःख का जोड़ा बराबर चलता रहता है । दुःख इसलिए सह लिया जाता है कि उससे सुख भी मिलता है । यह ज्ञात है कि सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख होता है। यह चक्र चलता रहता है। रात के बाद दिन और दिन के बाद रात-यह क्रम है। आदमी इसके परे नहीं जा सकता । किन्तु जब विवेक जाग जाता है तब दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है, दर्शन सम्यक् हो जाता है । तब सुख-दुःख का जोड़ा नहीं रहता । केवल सुख रहता है, दुःख नहीं रहता।
साधना के क्षेत्र में जोड़े की बात नहीं चलती। उसमें केवल की बात चलती है । ज्ञान और अज्ञान का एक जोड़ा है। किन्तु साधना के क्षेत्र में केवल ज्ञान चलता है, अज्ञान छूट जाता है। कोरा ज्ञान, संवेदना नहीं। सुख और दुःख का जोड़ा है । साधना के क्षेत्र में केवल सुख चलता है, दुःख छूट जाता है । कोरा सुख, दुःख नहीं। शक्ति-उत्कर्ष का एक जोड़ा है और शक्ति-हीनता का एक जोड़ा है। साधना के क्षेत्र केवल शक्ति होती है, शक्तिहीनता छूट जाती है।
__जब तक विवेक नहीं जागता तब तक साधक जोड़े में ही चक्कर काटता रहता है। जब प्रज्ञा जाग जाती है तब स्पष्ट दीखने लग जाता है
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