SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास : संयम २७ संयम को बाहर से नहीं लाया जा सकता । उसका स्रोत बाहर नहीं है । उसका उपादान है - भीतर में, गहरे भीतर में। वह है- ज्ञाताभाव, द्रष्टाभाव | जब चेतना ज्ञाताभाव और द्रष्टाभाव से जुड़ जाती है, उसमें रमण करने लग जाती है तब निमित्तों का प्रभाव नष्ट हो जाता है। हजारों निमित्त मिलकर भी चेतना को प्रभावित नहीं कर सकते। जब तक चेतना उस उपादान तक नहीं पहुंचती, ज्ञाताभाव और द्रष्टाभाव में रमण नहीं करती तब तक निमित्त नहीं मिलने पर भी मनुष्य निमित्तों की टोह में जाता है, उनको पैदा करता है, उनके पास जाने का प्रयत्न करता है। वहां तक पहुंचने के लिए वृत्तियां आंदोलित होती हैं । संयम की साधना का पहला सूत्र है - चेतना को ज्ञाताभाव - द्रष्टाभाव से संयुक्त करना | संयम की साधना का दूसरा सूत्र है - देखना | आंख से केवल देखना, कान से केवल सुनना, जीभ से केवल चखना । इनके साथ न राग को जोड़ें और न द्वेष को जोड़ें। कोरा देखें, कोरा सुनें और कोरा खाएं । अच्छे-बुरे का विकल्प न करें । चेतना की इस निर्मल धारा में, चेतना की इस गंगा में प्रियता और अप्रियता, राग और द्वेष की गंदगी को न जुड़ने दें। यह दूसरा सूत्र है । पहला सूत्र है निमित्तों से बचने का और दूसरा सूत्र है चेतना की धारा के साथ विकल्पों को न जोड़ने का । किन्तु ये दोनों तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक कि उपादान के खूंटे पर वह गाय नहीं बंध जाती । इसके बिना संयम की साधना भी सफल नहीं होती और प्रत्याख्यान पर लगने वाले धक्कों को भी नहीं रोका जा सकता । प्रत्याख्यान से संयम फलित होता है और संयम की निष्पत्ति है - असम्पर्क | अब प्रश्न यह रह जाता है कि उपादान तक कैसे पहुंचा जाए ? उस तक पहुंचने की प्रक्रिया या प्रयोग क्या है ? पहले हम निमित्तों से चलें । बाहर के निमित्तों को एक बार छोड़ दें। स्नायु संस्थान में आदत अर्जित है या मौलिक, इससे निपटने के लिए भावना का प्रयोग करें। प्राचीन भाषा में जिसे हम भावना कहते हैं, मनोविज्ञान को भाषा में उसे सुझाव कहा जाता है । ज्ञानतंतुओं को सुझाव दें, निर्देश दें। यह निर्देशन की क्रिया सुझाव की क्रिया है। आदत के परिवर्तन में यह बहुत सहायक प्रक्रिया है । कोई भी इन्द्रिय की उच्छृंखलता है, चंच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy