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किसने कहा मन चंचल है।
"नहीं, वह श्वास नहीं लेती।" "क्या आत्मा सोचती है ?" "नहीं, आत्मा नहीं सोचती।" "क्या आत्मा खाती-पीती है ?" "नहीं, आत्मा न खाती है और न पीती है।"
महावीर ने सारे उत्तर नकार में दिए । वे नहीं, नहीं कहते गए।' नेति-नेति ।
फिर प्रश्न हुआ कि मनुष्य आत्मवान कैसे है ? वह आत्मवान् कैसे बने ? इस परिधि में रहकर कोई भी आत्मवान नहीं बन सकता। कोई भी संयम की साधना नहीं कर सकता। कोई भी उपादान की शुद्धि नहीं कर सकता । इस परिधि को तोड़ना होगा। यह परिधि चेतना की परिधि नहीं है । यह मात्र एक यांत्रिक परिधि है, चेतना के आसपास में होने वाली । इस परिधि को तोड़कर गहरे में जाना होगा। यदि हम वहां तक पहुंच पाएं कि जहां हम केवल जानने वाले हैं, केवल देखने वाले हैं, खाने-पीने वाले नहीं, सोचने वाले नहीं, विश्लेषण करने वाले नहीं, केवल जानने और देखने वाले, केवल ज्ञाता और द्रष्टा-वह होगी प्राणी और अप्राणी के बीच की भेदरेखा, जीव और अजीव के बीच की भेदरेखा । यह उपादान है। इस उपादान तक पहुंचते ही यांत्रिक जीवन समाप्त हो जाता है और संयम की सिद्धि का सूत्र प्राप्त हो जाता है । संयम की सिद्धि का अर्थ है-ज्ञाता-द्रष्टाभाव की अनुभूति । जब तक ज्ञाता-द्रष्टाभाव की अनुभूति होती रहेगी, संयम शुद्ध होता चला जाएगा । जब-जब यह अनुभूति छूटेगी, तब-तब प्रत्याख्यान पर धक्का लगता रहेगा।
हमारी चेतना के दो विशाल क्रीड़ा-प्रांगण बने हुए हैं। एक का नाम है-विषय-रमण और दूसरे का नाम है-आत्म-रमण । चेतना दोनों में क्रीड़ा करती है । कभी वह विषय-रमण करने लगती है और कभी आत्मरमण । जब जीवन की यांत्रिक प्रक्रिया चलती है तब चेतना विषयों में क्रीड़ा करती है, उसी ओर भागती है। यह बाहर की प्रक्रिया है।
___आत्म-रमण का अर्थ है-उपादान तक पहुंचना, अपने स्वरूप में कीड़ा करना । चिन्तन की परिधि, श्वास की परिधि तथा सारी यांत्रिक परिधियों को तोड़कर ज्ञाताभाव और द्रष्टाभाव की सीमा में पहुंच जाना आत्म-रमण है और यही चेतना का स्वाभाविक क्रीड़ा-प्रांगण है ।
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