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किसने कहा मन चंचल है
लता है, विक्षेप है और हम नहीं चाहते कि ऐसा हो तो हम उन ज्ञानतंतुओं को निर्देश दें। पहले हम उसके केन्द्र को पकड़ें और फिर सुझाव दें, निर्देश दें। पहले हम यह जानें कि जिस वृत्ति को हमें बदलना है उसका केन्द्र कौनसा है ? उस केंद्र को पहचानकर हम निर्देश दें। वहां के ज्ञानतंतु हमारा निर्देश मानने लग जाएंगे । निर्देश भी अत्यंत प्रियता के साथ देना चाहिए । भाषा मधुर हो । कठोर और कर्कश भाषा में दिए गए निर्देश उतने कार्यकारी नहीं होते। प्रियता से दिए गए निर्देश बहुत सफल होते हैं। ज्ञानतंतु अत्यन्त कोमल हैं। कोमलता ही उन्हें इष्ट है। निर्देश कोमल हों, कठोर न हों। धीरे-धीरे वे ज्ञानतंतु आपके निर्देशों के अधीन हो जाएंगे। वे आपकी बात मानने लग जाएंगे ।
केवल रटन से कोई निष्पत्ति नहीं होती। रटन के साथ भावना हो, तादात्म्य हो, तभी वह सफल होता है। एक आदमी 'संसार अनित्य हैं', 'शरीर अनित्य है'-- ऐसा बार-बार कहता रहे। एक दिन नहीं, एक माह नहीं, वर्ष-भर भी यह रटन लगाता रहे, परन्तु उसकी यह रटन सफल नहीं हो सकती जब तक कि वह अपने मन को इस अनित्यता के भाव से भावित नहीं कर लेता, वासित नहीं कर लेता, उसके साथ तदात्म नहीं हो जाता, उस भावना को हृद्गत नहीं कर लेता । जब तक वह बात वाणी मात्र का विषय बनी रहती है तब तक वह निष्पत्ति नहीं हो सकती जो हम चाहते हैं। हम जो होना चाहते हैं या हम जो करना चाहते हैं, उसमें ज्ञानतंतुओं को तन्मय बना दें। यही भावना है । हम तन्मूर्तिक बन जाएं।
___ भगवान महावीर ने एक शब्द दिया-तन्मूर्ति । बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द है । उन्होंने कहा--"तुम चलते हो। एक है गति और एक है गतिमान् । ऐसा न रहे । दो न रहें । गति और गतिमान्-ये दो न रहें। तुम स्वयं गतिमान् मत रहो, गति बन जाओ।" गतिमान और गति-यह द्वत मिट जाए । अद्वैत रहे । जो गतिमान है वही गति है और जो गति है वही गतिमान् है । यही तन्मूर्ति है। यही भावना है।
उपादान तक पहुंचने का यह एक प्रयोग है।
उपादान तक पहुंचने का दूसरा प्रयोग है-तटस्थ रहकर वृत्तियों को देखना। वृत्तियों को रोकने का प्रयत्न न हो। जो विचार आ रहे हैं, फिर चाहे वे विचार वासना के हों या अन्य किसी वृत्ति के, आने दें। उन्हें रोके नहीं। उन्हें मात्र देखें । जो अजित है वह तो आएगा ही, उभरेगा ही।
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