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अध्यात्म का रहस्य - सूत्र
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तरंगातीत की बात समाप्त हो जाती | हमारा सारा ढांचा ही ऐसा है । हम श्वास से जीते हैं। श्वास स्वयं एक तरंग है । हम शरीर में जी रहे हैं । वह शरीर भी स्वयं एक तरंग है । हम शरीर को ठोस मानते । वह ठोस है नहीं । अनित्य अनुप्रेक्षा के अभ्यास से शरीर में होने वाले सूक्ष्म स्पंदन पकड़ में आ जाते हैं । हमें हड्डियां ठोस लगती हैं, किन्तु उनमें बहुत छिद्र हैं । एक वैज्ञानिक अपनी अनुसंधानशाला में बैठा रहा । वह एक 'कार्क' की संरचना को देख रहा था । सूक्ष्मवीक्ष्ण यंत्र का सहारा लिया। उसने देखा कि कार्क में केवल जालियां ही जालियां हैं । उसने फिर शरीर को देखा । शरीर में छिद्र ही छिद्र दिखे । इसी आधार पर कोशिकाओं का सिद्धान्त विकसित हुआ ।
हम मानते हैं कि भींत ठोस है । किन्तु इसमें से निरंतर इतने परमाणु निकलते हैं, इतने परमाणु घुसते हैं कि यदि उनको क्रम से रखा जाए तो हमारी पृथ्वी जैसी असंख्य पृथ्वियों में भी न समाएं। इस स्थिति में कैसे माना जाए कि भींत ठोस है ? छिद्र ही छिद्र, तरल ही तरल, सब कुछ तरंगित है । जब पर्यायों का इतना बड़ा समूह है तब मूल पदार्थ तक हमारी पहुंच कैसे हो ।
शरीर भी एक तरंग है । मन भी एक तरंग है। श्वास भी एक तरंग है और बुद्धि भी एक तरंग है । हमारे उपभोग में आने वाले जितने भी उपकरण हैं वे सब तरंगें हैं । इन तरंगों के आधार पर जो हम जानेंगे वह तरंग कैसे नहीं होगा ? तरंग के द्वारा तरंग ही पकड़ा जाएगा, निस्तरंग नहीं पकड़ा जाएगा । श्वास, शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि के द्वारा निस्तरंग नहीं पकड़ा जा सकता । इसलिए हमारे ऐन्द्रिक, मानसिक, वैचारिक और बौद्धिक जगत् में यदि यह घोषणा होती है कि आत्मा नामक कोई मूल तत्त्व नहीं है तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इन उपकरणों के आधार पर यह घोषणा कैसे की जा सकती है कि एक तत्त्व ऐसा भी है जो निस्तरंग है, तरंगों से अतीत है। एक ऐसी भी अवस्था है जो तरंगातीत है । इन्द्रियचेतना से लेकर बौद्धिक चेतना तक के जगत् में ऐसा कोई माध्यम नहीं है जो निस्तरंग को प्रमाणित कर सके । यदि हम मन की तरंग के द्वारा यह कहें कि कोई निस्तरंग तत्त्व है तो यह भी एक मन स्वयं तरंग है तो वह निस्तरंग को कैसे पकड़ नहीं है कि निस्तरंग भी कुछ होता है । उसका भी अस्तित्व है । मन केवल
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मन की तरंग ही होगी ।
पायेगा ? उसे पता ही
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