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किसने कहा मन चंचल है
एक टेपरिकार्डर की भांति है । जो मान्यता या आवाज उसमें भर दी गयी वह उसकी पुनरावृत्ति करता ही रहेगा । मन में एक बात भर दी गयी कि एक तत्त्व ऐसा भी है जो निस्तरंग है, वह बार-बार यह बात कहता रहेगा । किन्तु उसके पास निस्तरंग जगत् से आया हुआ कोई भी साक्ष्य नहीं है जिसके द्वारा वह यह प्रमाणित कर सके कि ऐसा भी एक तत्त्व है जो तरंगातीत है । फिर यह भी एक प्रश्न होता है कि ध्यान भी मन की एक तरंग ही | ध्यान का जो परिणाम होगा वह भी मन की एक तरंग ही होगी । हम पर्याय के इस मायाजाल में इतने उलझ जाते हैं कि पर्यायातीत और तरंगातीत कुछ भी हमें उपलब्ध नहीं होता । यही एक ऐसा बिन्दु है जहां पहुंचकर व्यक्ति अध्यात्म की खोज करता है । यदि यह बिन्दु न हो तो अध्यात्म की खोज कभी संभव नहीं हो सकती। जिन लोगों ने अध्यात्म की खोज की है, उनका आरोहण इसी बिन्दु पर हुआ है । इस बिन्दु पर आकर ही उन्होंने अध्यात्म को खोजने का प्रयास किया है । यह मध्य बिन्दु है । एक ओर तरंगों का जगत् है और दूसरी ओर तरंगातीत जगत् है । मध्य में यह बिंदु है । इसे पकड़े बिना तरंगों के संसार से तरंगातीत संसार में नहीं पहुंचा जा सकता ।
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होता है कि तरंग को
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एक प्रश्न होता है कि क्या तरंगों को समाप्त किया जा सकता है ? क्या तरंगों को स्थिर कर पाना संभव है ? ध्यानयोगियों ने इसका उत्तर 'हां' में दिया, यह संभव है इस संभावना पर मनुष्य ने चिंतन किया । संभावना और आगे बढ़ गयी । साधक को अनुभव रोका जा सकता है । श्वास एक तरंग है इसे रोका जा सकता है । इस पर खोज हुई । ये तथ्य सामने आए कि एक मिनट में १५ श्वास लेने वाला व्यक्ति, साधना और अभ्यास के द्वारा, उस संख्या को घटाकर १०, ७, ५. और एक मिनट में एक श्वास तक आ जाता है । जब उसका अभ्यास और आगे बढ़ता है तब पूरा वर्ष श्वास लिये बिना रह सकता है और बारह वर्ष तक भी श्वास लिये बिना रह सकता है । श्वास का दरवाजा बिल्कुल बंद करके भी जी सकता है। श्वास के तरंग का निरोध किया जा सकता है । उसको समाप्त भी किया जा सकता है । महाप्राण ध्यान की साधना में श्वास को बिल्कुल समाप्त कर दिया जाता है और भी अनेक प्रकार की समाधियों में श्वास का सर्वथा निरोध कर दिया जाता है । साधक श्वासहीन स्थिति में चला जाता है ।
शरीर भी एक तरंग है । इसे भी रोका जा सकता है। इसकी सभी
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