SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म का रहस्य-सूत्र हमारे हाथ में एक नींबू है। उसका रंग-रूप देखकर हम जान लेते हैं कि यह नींबू है । अंधेरे में नींबू को सूंघकर हम जान लेते हैं कि यह नींबू है। रंग-रूप से भी हम नींबू को जान लेते हैं और गंध से भी हम नींबू को जान लेते हैं। छूकर और चखकर भी हम उसको जान लेते हैं । वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से हम वस्तु को जान लेते हैं। प्रश्न होता है कि नींबू क्या है ? हम रंग-रूप को देखते हैं वह नींबू नहीं है । गंध, रस और स्पर्श से जो जानते हैं वह भी नींबू नहीं है । इनसे तो हम केवल एक पर्याय को जानते है। आंख में रंग-रूप को जानने की क्षमता है और घ्राण में गंध को जानने की क्षमता है । इसी प्रकार त्वचा में स्पर्श को और जीभ में रस को जानते क्षमता है। हम इन इन्द्रियों से एक-एक पर्याय को जान लेते हैं। पर प्रश्न है कि द्रव्य क्या है ? ये सारी पर्यायें हैं, तरंगें हैं। मूल क्या है ? विज्ञान सदियों से यह खोज कर रहा है कि मूल क्या है ? आज भी खोज चालू है। बहुत सारे कण खोजे गए हैं, किन्तु मूल कण का प्रश्न आज भी प्रश्न ही है। दार्शनिक जगत में यह प्रश्न हजारों वर्षों से चर्चा जाता रहा है कि मूल तत्त्व क्या है ? मूल तत्त्व तक पहुंचना बहुत कठिन बात है। वह कठिन इसलिए है कि यह सारा जगत् लहरों का जगत् है। सारा जगत् पर्यायों का जगत् है। पर्याय ही पर्याय । मूल समुद्र कहां है ? इसका कोई पता नहीं है। तरंगों और पर्यायों के इतने आवरण हैं कि मूल तत्त्व तक पहुंचना सरल नहीं है। जो कुछ दृश्य है व सब तरंग ही तरंग है, पर्याय ही पर्याय है। तरंग तरंग को जानती है। जो आंखें जानती हैं, वह आंख स्वयं एक तरंग है, पर्याय है । आंख में केवल तरंग को जानने के अतिरिक्त किसी तरंगातीत को जानने की क्षमता नहीं है। हमारी कोई भी इन्द्रिय तरंगातीत को जानने में सक्षम नहीं है। इसलिए इन्द्रियों के आधार पर जिन्होंने चिन्तन किया, उन्होंने यह घोषणा कर दी कि इस संसार में तरंगातीत कुछ भी नहीं है। ऐसा कुछ भी नहीं है जो तरंगातीत हो, पर्यायों में अतीत हो । जानने वाला स्वयं तरंग और जाना जाने वाला स्वयं तरंग । ऐसी स्थिति में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy