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प्रवचन २
संकलिका
• संजमति णो पगम्मति। [आयारो, ५३५१] • एगप्पमुहे विदिसप्पाण्णे, निग्विनचारी-[आयारो, ५१५४] • मुमुक्षु इन्द्रियों का संयम करता है, उनका उच्छृखल व्यवहार
नहीं करता। • मुमुक्षु अपने लक्ष्य की ओर मुख किये चले। वह चेतना-जागरण
की विरोधी दिशाओं का पार पा जाए, पदार्थ के प्रति विरक्त
रहे। • निमित्त से बचें या उपादान को निर्मल करें। • हेय-उपादेय का विवेक होने पर हेय का प्रत्याख्यान होता है। • अतीत का प्रतिक्रमण और अनागत का प्रत्याख्यान । • अनागत का प्रत्याख्यान होने पर वर्तमान का संवर स्वयं, फिर
अतीत की शुद्धि । अपने केन्द्र या धुरी से खिसकी हुई चेतना का अपने केन्द्र पर लौट आना। प्रत्याख्यान मूर्छा के व्यूह पर दूसरा प्रहार है । • प्रत्याख्यान और संवर के बीच का तत्त्व है-संयम ।
संयम से प्रत्याख्यान सिद्ध होता है और संवर निष्पन्न ।
संयम साधना है और संवर निष्पत्ति । • संयम की साधना के आयाम ० अस्पर्श-विषय का स्पर्श न करें। • स्पर्श में अस्पर्श-विषय का स्पर्श होने पर भी राग-द्वेष की
चेतना को न जोड़ें। ० प्रतिसंलीनता-प्राण का प्रतिसंहरण ।
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