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चेतना का प्रस्थान : अज्ञात को दिशा
साधक को ज्योति की जरूरत होती है । उसे प्रकाश की अपेक्षा होती है । जिससे कि वह देख सके । अन्धकार में दिखायी नहीं देता । प्रकाश में सब कुछ दीख जाता है । प्रकाश जितना तेज होगा, देखने की स्पष्टता भी उतनी ही अधिक होगी। जो ज्ञात है वह भी प्रकाश से दीख जाता है और जो अज्ञात होता है वह भी दीख जाता है। ज्ञात को देखने के लिए उतना प्रकाश नहीं चाहिए, जितना प्रकाश अज्ञात को देखने के लिए अपेक्षित होता है । हमारा ज्ञात जगत् बहुत छोटा है और अज्ञात जगत् बहुत बड़ा है । अज्ञात जगत् की तुलना में ज्ञात जगत् एक सूई के अग्रभाग जितना भी नहीं है । ज्ञात जगत् एक बिन्दु है तो अज्ञात जगत् एक सिन्धु है । ज्ञात-जगत् सीमित है। अज्ञात जगत् असीम है । उसे किसी उपमा के द्वारा उपमित नहीं किया जा सकता ।
हम इन्द्रियों के द्वारा जो जानते हैं, वह बहुत ही सीमित है । कान के द्वारा हम सुनते हैं, किन्तु अमुक फ्रीक्वेन्सी के शब्द ही हम सुन पाते हैं । यदि हम होने वाली समस्त ध्वनियों को सुन सकें तो कान का पता ही नहीं चलेगा । सारा वायु मण्डल ध्वनियों से प्रकम्पित है । इन सबको सुनने वाला बच ही नहीं पाता। हम इस पृथ्वीतल से जो उपलब्ध करते हैं, अपनी इन्द्रियों के द्वारा, उनमें से हम कुछेक रूपों को ही देख पाते हैं, कुछेक शब्दों को ही सुन पाते हैं और कुछेक वस्तुओं का ही उपयोग कर पाते हैं । बस इतना ही ज्ञात होता है, शेष सारा अज्ञात रह जाता है लिए मनुष्य की जिज्ञासा भी है । मनुष्य का स्वभाव है कि वह अज्ञात को ज्ञात करता है । वह इसी में संतोष और तृप्ति मानता है कि वह सदा सत्य को खोजता रहे, अज्ञात को ज्ञात करता रहे। मनुष्य की चेतना इस दिशा में आदिकाल से प्रस्थान करती रही है और समूचे विकास का आधार ही हैसत्य की खोज । यदि सत्य की खोज नहीं होती तो मनुष्य का विकास नहीं होता । पशु का इसीलिए विकास नहीं होता कि वह सत्य की खोज में प्रस्थित नहीं है । हजार वर्ष पहले भी वह बैलगाड़ी में जुतता था और आज भी वह
और अज्ञात है इसी
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