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किसने कहा मन चंचल है गाड़ी में जुतता है । उसका कोई विकास नहीं हुआ है। मनुष्य ने न जाने हजार वर्षों में कितना विकास किया है, कितने नए आयाम खोले हैं । यह सब इसी आधार पर हुआ कि मानवीय चेतना में विकास की क्षमता है और वह सदा सत्य की खोज करता रहता है। मनुष्य जैसे-जैसे सत्य की खोज करता है, वैसे-वैसे उसके ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत होता है और उपयोगिता का क्षेत्र भी विकसित होता है। साथ-साथ उसकी क्षमताएं भी बढ़ती हैं।
मनुष्य कुछ ज्ञात करता है। उसमें से कुछ ज्ञात ज्ञेय के रूप में ही रहता है और कुछ ज्ञात उपयोगिता में बदल जाता है, उपादेय बन जाता है । साधना का प्रयत्न, प्रेक्षा-ध्यान का अभ्यास, अज्ञात को खोजने का प्रयत्न करना है। हमारी वह कहीं न रुकने वाली अनवरत यात्रा सत्य की खोज की दिशा में सतत अग्रसर होने वाली यात्रा है। इस यात्रा के फलस्वरूप जो ज्ञाता है वह भी उपलब्ध होता है और जो अज्ञात है वह भी उपलब्ध होता है । सबसे बड़ा सूत्र जो उपलब्ध होता है, वह यह है कि इस दुनिया में कुछ ऐसा है जो बदला जा सकता है और कुछ ऐसा भी है जो नहीं बदला जा सकता। जो बदला जा सकता है, उसे बदलना चाहिए और जो नहीं बदला जा सकता उसे नहीं बदलना चाहिए। जब यह सचाई स्पष्ट हो जाती है तो अगला चरण यह होता है कि जो बदलने योग्य है उसे बदल देना चाहिए। साधना का यह महत्त्वपूर्ण सूत्र है कि जो अनित्य है, परिवर्तनशील है, बदलने जैसा है, उसे बदल ही देना चाहिए । यथावत् वही रह सकता है जो शाश्वत है । अशाश्वत कभी यथावत् नहीं रह सकता।
हम बदलते हैं साधना के माध्यम से । सबसे पहले उसे बदलते हैं जो निरन्तर हमें बदलता रहता है। श्वास जीवन को निरन्तर बदलता रहता है। सबसे पहले हम उस श्वास को बदलने का प्रयत्न करते हैं। यह बहुत बड़ी सचाई है कि जब तक उस श्वास की गतिविधि को नहीं बदला जाता, तब तक साधना में विकास नहीं किया जा सकता, तब तक अज्ञात की दिशा में लम्बी यात्रा नहीं की जा सकती। अज्ञात की दिशा में लम्बी यात्रा करने के लिए प्राणशक्ति की प्रचुरता अपेक्षित होती है। प्राणशक्ति के लिए श्वाप्स का इंधन चाहिए । श्वास का ईंधन जितना सशक्त होगा, प्राणशक्ति उतनी ही सशक्त होगी। प्राणशक्ति जितनी सशक्त होगी, हमारी यात्रा उतनी ही. निर्विघ्न होगी। इसलिए श्वास की गतिविधि को बदलना जरूरी है । . प्रेक्षा-ध्यान का अभ्यास करने वाला सबसे पहले श्वास की गति को
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