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प्रेक्षाध्यान और मानसिक प्रशिक्षण
२६१ की प्रक्रिया में जुटा रहे, यह है कर्म और मन का सामंजस्य । भावक्रिया दर्शन का महत्त्वपूर्ण आयाम है । जब भावक्रिया सध जाती है तब ध्यान की पद्धति केवल एक घंटा बैठकर करने की पद्धति नहीं रहती, वह समग्र जीवनदर्शन बन जाता है। फिर प्रत्येक क्रिया में ध्यान बना रहेगा। फिर चाहे व्यक्ति झाडू लगाएगा तब भी ध्यान होगा। हाथ झाडू लगाएगा तो मन भी साथ-साथ झाड़ लगाने की क्रिया में संलग्न हो जाएगा। यह नहीं होगा कि हाथ तो झाड़ लगाए और मन कहीं सिंहासन पर जाकर बैठ जाए। यह व्यक्तित्व का विभाजन नहीं होगा । यह खंडित व्यक्तित्व नहीं होगा। जिस काम में शरीर व्याप्त है, उसी काम में मन व्याप्त हो जाएगा। ऐसा नहीं होगा कि मन आदेश देकर कहीं चला जाए और शरीर बेचारा काम करता रहे । यह स्वामी और सेवक का सम्बन्ध भाव क्रिया में नहीं रहेगा। वहां दो साथियों का सम्बन्ध होता है मन और शरीर में। दोनों साथ-साथ काम करेंगे । दोनों साथ-साथ विश्राम करेंगे। मन काम करेगा तो शरीर भी काम करेगा। मन विश्राम करेगा तो शरीर भी विश्राम करेगा। दोनों का पूरा सामंजस्य होगा।
भावक्रिया मन को प्रशिक्षित करने का पहला सूत्र है । इससे मन पटु होता है, सूक्ष्म होता है, जिससे कि वह सूक्ष्म सत्यों को पकड़ सके।
. मन को प्रशिक्षित करने का दूसरा सूत्र है-कल्पनाशक्ति का विकास, संकल्प या इच्छाशक्ति का विकास । मन को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाए कि वह स्पष्ट चित्र बना सके । कल्पनाशक्ति के द्वारा चित्र का निर्माण और संकल्पशक्ति के द्वारा उस चित्र की उपलब्धि । हमारी जो भावना होती है उसको हम अपने सुझावों के द्वारा इच्छाशक्ति के रूप में बदल देते हैं और "फिर इच्छाशक्ति के द्वारा जहां पहुंचना चाहते हैं वहां पहुंच जाते हैं। जो होना चाहते हैं वह हो जाते हैं। जिस दिशा में हम चलना चाहते हैं, उस दिशा में स्वयं प्रस्थित हो जाते हैं।
मन को प्रशिक्षित करने का तीसरा सूत्र है-एकाग्रता । मन का सहज स्वभाव है चंचलता । वह कहीं एक स्थान पर नहीं टिकता। कहीं न टिकना, चंचल बना रहना, यह मन की अपनी सहज प्रकृति है। यदि वह स्थिर हो जाता है तो मानना चाहिए वह अपनी प्रकृति से ऊपर उठ गया है। मन की तुलना पारे से की जा सकती है। पारा महज चंचल होता है, उसे
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